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________________ (२२२) इसके बाद पर्युषणा के दिन आए । राजा की आज्ञा से अपराधी लोग जेल से छोड़े गए। राजा ने मन में सोचा कि यद्यपि मेरा पुत्र अपराधी है, दुःशील है। फिर भी उसको जेल में रखकर राज्यसुख को मैं अच्छा नहीं मानता, इतना ही नहीं उसके जेल में रहने पर मेरा पर्युषणा पर्व भी शुद्ध नहीं होगा। यह सोचकर उसे मुक्त करके, मधुर वचन से राजा ने कहा, पुत्र ? विषाद छोड़ो, प्रसन्न होकर रहो, दीक्षा लेते समय अपने पद पर तुम्हें स्थापित कर दूंगा। यह कहकर देश के अंत भाग में सौ गाँव देकर, कुछ विश्वस्त लोगों के साथ राजा ने उसे भेज दिया और वह भी मन में वैर को लिए चला गया । वह दुष्ट वहाँ भी दिन-रात पिता को मारने के लिए छल-कपट का चिंतन करने लगा। पर्वत के समीप पल्ली के पास वह रहता था। एक समय औषधियों का अन्वेषण करते हुए एक धूममुख नाम का योगी वहाँ आया। मदनवेग ने शयन-आसन-भोजनपान आदि से उस योगी की इतनी सेवा की जिससे प्रसन्न होकर उसने कुमार को एक अदृश्य अंजन दिया। दोनों आँख में अंजन लगाकर, अदृष्ट होकर, वह मन में सोचने लगा कि उस वैरी को मारने से ही मेरे चित्त में शांति आएगी । अपने हाथ से पिता को मारना ही मेरे लिए राज्यलाभ है । वैरी से दिया गया राज्य तो नरक से भी बढ़कर दुःखदाई है। हस्तिनापुर आकर राजा को मारने की ताक में वह शौचागार में जाकर बैठ गया। शरीर-चिंता के लिए मणि के बिना ही राजा जब वहाँ आए, उसने पीछे से राजा की पीठ में छूरा मार दिया। उस दुष्ट को बिना देखे ही राजा बाहर निकल आए और कहा कि द्वार बंद करो इसमें कोई अदृश्य है । —मारोमारो' कहते हुए भालेवाले अंग-रक्षकों ने द्वार बंद कर दिया। वह
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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