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________________ (२०५) की कि शरीर तथा मानस दुःख को दूर करने के लिए मन, वचन, काय से जीवों को अभयदान देना चाहिए, जो जीव सर्वदा सत्य बोलते हैं वे जन्म-जरा-मरण दुःखदायी संसार को अनायास पार कर जाते हैं, जो अदत्तादान नहीं करते हैं उनको दुर्गति व्याधिजरा-मरण-शोक, वियोग नहीं प्राप्त होते हैं, जो मन-वचन-काय से अब्रह्मचर्य का त्याग करते हैं वे सकल कर्मों का क्षय करके, शाश्वत स्थान को प्राप्त करते हैं। इस प्रकार उन्होंने धर्मदेशना समाप्त की। अवसर पाकर कुमार ने मुनि से पूछा कि भगवन् ! उस देव ने मेरी विद्याओं का उच्छेद कैसे कर दिया ? मुनि ने भी उस देव के साथ वैर का कारण बतलाया। सुनते ही कुछ ऊहापोह करने पर कूमार को एकाएक जाति-स्मरण उत्पन्न हो गया, स्मरण करके कुमार ने मुनि की बातों को स्वीकार करके फिर पूछा कि उसने सुरसुंदरी का अपहरण कर उसे कहाँ रख छोड़ा है ? मुनि ने कहा कि स्वर्ग से च्युत उस देव के हाथ से छूटकर, आकाश से वह हस्तिनापुर के कुसुमाकरोद्यान में गिरी और कुमार ? अभी वह आपकी माता कुसुमावली के पास है, कुमार ने कहा कि क्या ये मेरे पिता नहीं हैं ? और कनकमाला क्या मेरी माता नहीं है ? तब मुनि ने देव के द्वारा कमलावती के अपहरण की बात कही, मुनि के वचन को सुनकर चित्रवेग ने कहा कि कुमार ? आपको याद नहीं है कि देवभाव में रहते हुए आपने कहा था कि देव के द्वारा अपहृत होकर चित्रवेग विद्याधर के घर में बढ़ेंगे ? पुत्र ! फिर उन विद्याओं का साधन करो। शोक करने की कोई बात नहीं है, क्यों कि संसारस्थिति से उद्विग्न होकर अब मुझे प्रव्रज्या लेने की इच्छा है, अतः अपने पद पर तुमको स्थापित करता हूँ !
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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