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________________ (२०१) सूरि के वचन सुनकर राजा, देवी सुरसुंदरी आदि सब अत्यंत प्रसन्न हो गए, तब राजा ने कहा, भगवन् ? जब तक मेरा पुत्र नहीं आता है तब तक आपके पास ही मनुजत्व सफल करता हूँ ! इतने में धनदेव ने प्रणाम करके सुप्रतिष्ठ गुरु से पूछा, भगवन् ? उस समय कनकवती के द्वारा भेजे गए सैनिकों के साथ युद्ध में भीलों के मारे जाने पर आपकी क्या स्थिति रही ? और फिर आपने श्रवणत्व कैसे प्राप्त किया ? गुरु ने कहा, सुनो-उस समय युद्ध में बाणों से घायल होकर जब मैं भूमि पर गिर पड़ा, चित्रवेग ने उस प्रदेश को देखा और स्नेह से मुझे वैताढ्य पर्वत पर ले आए। औषध के बल से मैं उसी क्षण स्वस्थ हो गया, पहले के उपकार को स्मरण करते हुए उन्होंने प्रज्ञप्ति नाम की विद्या दी। मैंने वहीं उस विद्या का साधन किया, वहाँ से विद्याधरों के साथ सिद्धार्थपुर आया, और कनकवती सहित सुरथ को देश से निकाल दिया । धनदेव ? मैं सिद्धार्थपुर का राजा बना। करोड़ों वर्ष तक राज्य का पालन करके, अपने पुत्र जयसेन को राज्य देकर पाँच सौ राजपुत्रों के साथ धनवाहन केवली के चरण मूल में दीक्षा लेकर, साधुक्रियाओं का अभ्यास करके, द्वादशांगी का ज्ञान करने पर, धनवाहन केवली के द्वारा सूरि पद पर अभिषिक्त हुआ। शैलेशीकरण से चार अघाती कर्मों का भी क्षय करके, मेरे गुरु निर्वाण प्राप्त हुए । इस प्रकार सुप्रतिष्ठ सूरि जब अपना वृत्तांत बतला रहे थे इतने में एक विद्याधर आकाश से नीचे उतरा, विनयपूर्वक सूरि को प्रणाम करके उसने कहा, राजन् । मैं आपको बधाई देने के लिए आया हूँ, प्रव्रज्या लेने की इच्छा से चित्रवेग ने सकल विद्या सम्पन्न आपके पुत्र मकरकेतु को अपने पद पर
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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