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________________ (१९३) लगें । कुछ लोग बिल्ली के बच्चे की विष्ठा से मिश्रित गुंगुल का धूप देने लगे किंतु फिर भी उसका उन्माद शांत नहीं हुआ। उन्मत्तावस्था में वे दोनों अपना समय बिताने लगे। एक समय रात को जब पहरेदार सो रहे थे, जंजीर तोड़कर दोनों नगर से निकल पड़े। शीत, बात आदि अनेक कष्टों को सहन करते हुए नगर-से-नगर भीख मांगते हुए भटकने लगे, इस तरह संसार में राजा होकर भी भीख माँगने की स्थिति आती है। उधर विजयानगरी में धनवाहन अनंगवती में अनुरक्त होकर अनेक भोगों को भोगता था । बड़े भाई सुधर्मसूरि से प्रतिबोध पाकर उनके पास पत्नी के साथ उसने दीक्षा ले ली। धनपति भी बड़े अनुराग से वसुमती के साथ पंचविध मनुष्य-भोग को भोगता था। वह मोहिल वणिक, जिसको राजा ने अपने देश से निकाल दिया था। किसी शुभफल देनेवाले, अनुष्ठान करके वैताढ्य पर्वत की उत्तर श्रेणी में वैजयंतपुर में चित्रांगद की पृथिवी नामक भार्या से सुमंगल नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। अनेक विद्याओं को सिद्ध करके गगनमार्ग से घूमते हुए मेखलावती पहुँचा । महल पर नहाती हुई वसुमती को उसने देखा । देखते ही पूर्वभवाभ्यास से वह उसके रूप पर मोहित हो गया। पूर्वभव कर्म दोष से धनपति वणिक को उसने भरतक्षेत्र की विनीता नगरी में ले जाकर छोड़ दिया और स्वयं धनपति के रूप में वसुमती के साथ विषयसुख भोगने लगा । विनीत में वह ऋषभ जिनेश्वर के कुल में जन्मे दण्डवीर्य केवली के पास दीक्षित हो गया। तीस लाख पूर्व तक उग्रतप करके ईशानकल्प में चंद्रार्जुन नामक देव बना । परदार भोगी सुमंगल का उस देव ने विद्याच्छेद किया और क्रोध में आकर उस देव ने उसे ले जाकर मनुष्य पर्वत के - १३ -
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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