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________________ चौदहवाँ–परिच्छेद इस प्रकार जब धनदेव ने राजा से मकरकेतु का समाचार बतलाया, सुनते ही सुरसुंदरी शोकसंतप्त होकर विलाप करने लगी, हाय ? मेरा यह हृदय अवश्य वज्र से बनाया गया है, नहीं तो इस दुःखद समाचार सुनने से यह अवश्य फट जाता । अब मुझे जीने से ही क्या लाभ ? क्यों कि प्रवहण फूटने पर उनका जीवित रहना असम्भव है | नाथ ? आपने तो कुशाग्रपुर जाकर शत्रुंजय राजा को मारकर, अपने स्नेह का परिचय दिया, जिस देव ने मेरा अपहरण किया उसी देव ने आपकी विद्या नष्ट कर दी होगी । आप अभी किस स्थिति में होंगे ? हाय ! चंद्र समान निर्मल आपके मुख को मैं कैसे देखूंगी ? विधाना ने क्यों मेरा सर्वस्व छीन लिया ? स्त्रियाँ चंचल स्नेहवाली होती हैं । यह बात बिलकुल ठीक दिखती है, नहीं तो ऐसे दुःखद समाचार सुनने पर भी मैं जीती कैसे ? इस प्रकार चिंतन करके, विकल होकर सुरसुंदरी कमलावती की गोद में गिर पड़ी । कमलावती भी पुत्र के समाचार से व्याकुल होकर, इस प्रकार विलाप करने लगी कि हाय पुत्र ? जंगल में जन्म लेते ही तुम को हरकर ले गया । अभी भी मेरे दुर्भाग्य से तुम्हारा दर्शन नहीं हुआ, यह बिचारी धन्य है, जिसनें तुम्हारा मुख तो देख लिया, कुलपति ने कहा था कि युवावस्था में आने पर वह मिलेगा, उनका भी वचन सत्य नहीं निकला, राजा अमरकेतु भी
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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