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मेरा इतना पुण्य कहाँ ? जो इन आँखो से मैं अपने मन- वल्लभ को देखूं, मैं उनकी गोद में आऊँ ऐसे पुण्य का तो संभव नहीं, इतने में प्रियंवदा ने कहा, सुरसुंदरि ! अब आप उद्विग्न क्यों हैं ? यह रत्नद्वीप है, और में आपकी बहन प्रियंवदा हूँ, विद्याओं को सिद्ध किए यह मेरा भाई मकरकेतु है। उसकी बात सुनकर 'यही मेरे प्रिय हैं ' यह सोचकर मैं भय से काँपने लगी और संकीर्ण रस का मै अनुभव करने लगी । उनकी गोद से उठकर में प्रियंवदा के पास जाकर बैठी, वे मुझे जब नहीं देख रहे थे तब मैंने कटाक्षदृष्टि से उनको देखा । इतने में एक विद्याधर ने आकर विनयपूर्वक कहा कि कुमार ? जिन - पूजा का समय हो गया, है अतः आप उठिए, उसकी बात सुनकर प्रियंवदा के पास मुझे रखकर कुछ लोगों के साथ वे जिन भवन को गए । तब प्रियंवदा ने पूछा कि सुंदरि ! भूमिचर के लिए अत्यंत दुर्गम इस रत्नद्वीप में आप कैसे चली आई ? और विष भक्षण करके इस कष्ट में क्यों पड़ी? मैंने सारी बातें बतलाकर फिर पूछा कि चित्रपट देकर आप कहाँ गई? और आपने क्या किया ? इस घोर जंगल में आपने मुझे कैसे पाया ? और कैसे एक क्षण में मेरे शरीर से विष विकार को नष्ट किया ?
प्रियंवदा ने कहा कि आपको चित्रपट देकर वेग से मैं इस रत्नद्वीप में आई, अपने परिजन के साथ मकरकेतु को देखा । भ्रातृस्नेह से यही कुछ दिन रही। बाद में यहाँ आए हुए पिताजी
मुझ से यहीं मकरकेतु की परिचारिका बनकर रहने लिए कहा । ' जैसी आपकी आज्ञा ' यह कहकर मैं इसी द्वीप में भाई के पास रहने लगी । विद्या सिद्धि का समाचार पाकर बहुत विद्याधरों के साथ पिताजी अष्टाकि महोत्सव निमित्त इसी द्वीप में आ गए ।
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