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________________ (१६५) माला को पकड़कर अपने नगर लाया। महिला सहित विद्याधर के ऊपर आक्रमण करने से उसका विद्याच्छेद हो गया। पूर्वपरिचित देव ने चित्रवेग को विद्याएँ दी, जिससे वह विद्याधर चक्रवर्ती बन गया । सभी विद्याधरेंद्र उनको प्रणाम करते हैं, यह जानकर मेरे पिताजी ने कहा कि मनुष्यों के मनोरथ किस प्रकार नष्ट हो जाते हैं, मैंने सोचा था कि अपने पुत्र को विद्याधर चक्रवर्ती बनाकर केवली पिता के पास प्रव्रज्या लूंगा किंतु हो गया कुछ दूसरा ही, अतः इस राज्य से क्या लाभ ? इससे तो केवल नरक ही मिल सकता है, अतः मैं प्रव्रज्या लेकर पिताजी के चरणों की सेवा करूँगा, संसार अत्यंत असार है, यह किंपाक फल के समान अत्यंत परिणाम दुःखद है। जीवन और लक्ष्मी अत्यंत चंचल हैं, संसार में मृत्यु से कोई भी बच नहीं सकता। चारों गतियों में अनेक दुःख संतप्त जीवों को जिन-धर्म छोड़कर दूसरा बचानेवाला कोई धर्म नहीं है । इसलिए पिताजी के पास जाकर मैं अपने जीवन को सफल करूँगा। पिताजी के विचार को जानकर नरवाहण ने भी दीक्षा लेने का विचार किया। अपने पुत्र के साथ सुरवाहण केवली के पास निर्मल चारित्र्य लेकर आठों कर्म को निर्मूल करके अंतकृत केवली बने । उसके बाद चित्रवेग विद्याधरेंद्र ने अपने देश का एक खंड देकर मुझे उसका राजा बनाया । एक समय किसी कारणवश सबेरे अपने नगर से चलने पर आकाशमार्ग से मैंने महल के ऊपर सोई देखकर कामातुर होकर मैंने तुम्हारा अपहरण किया है, इसलिए सुंदरि? तुम रोओ नहीं, तुम तो मेरे प्राणों की भी स्वामिनी हो । मेरे साथ वैताढय पर्वत पर अनेक भोगों को भोगोंगी। उसके वचन सुनकर मैं वज्राहत की तरह अत्यंत दुःखी होकर सोचने लगी कि मेरे कारण पिताजी ने शत्रुजय राजा से भी विरोध
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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