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________________ (१४) में आपकी शरणागत हूँ, अतः व्याघ्रादि दुष्ट जंतुओं से मेरी रक्षा करें, पुत्र ? आज की रात यदि मैं हस्तिनापुर में रहती तो इतने समय में राजा तुझे बधाई दिए होते । पुत्र ? तेरे जन्म से आज वहाँ मंत्री, सामंत, परिजन सब अत्यंत प्रसन्न होते । दुर्भाग्य से इस घनघोर जंगल में तेरा जन्म हुआ तो फिर अभागिन मैं अभी क्या कर सकती हूँ ? पुत्र ! यहाँ तेरा जन्म होने से मैं इस जंगल को ही वस्ती मानती हूँ, तुझे गोद में आने से मेरा भय भी नष्ट हो गया । सूर्योदय होने पर दिन में तेरे मुख को देखकर मैं अपना मनोरथ पूर्ण करूँगी । इस प्रकार बोलने के बाद थकावट तथा पीडा-शांति से मुझे नींद आ गई, थोड़ी देर के बाद किसी के शब्द को सुनने से मेरी निद्रा टुट गई। मैंने सुना कि " पाप? कितना अन्वेषण करने के बाद बहुत दिन पर आज तुम मिले, आज में वैर का अंत करूँगा, अपने कर्मों का फल तुम भोगो" तब मैंने सोचा कि यह कौन बोलता है ? इतने में मैं अपनी गोद में पुत्र को नहीं देखकर सोचने लगी कि क्या कहीं गिर गया है ? अथवा किसी ने उसे चुरा लिया है ? अथवा क्या मैं स्वप्न देख रही हूं ? अथवा मुझे भ्रम हो रहा है ? इस प्रकार चिंतन करने के बाद मैं इधर-उधर खोजने लगी किंतु महाराज ? उसको कहीं नहीं पाकर मानो सिर में वज्र के आहत होने से मूच्छित होकर एकाएक भूमि पर गिर पड़ी। कमलावती पुत्रहरण नाम का दशम परिच्छेद समाप्त । ० ० ०
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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