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________________ (१४२) हूँ, कुसाग्रनगर से व्यापार के लिए सार्थ लेकर दूसरे देश को गया था, बारह बरस पर फिर अपने नगर को चला हूँ, सार्थ के साथ आज ही यहाँ आया हूँ, बहन ! आप यहाँ अकेली क्यों है ? तब मैंने हाथी के द्वारा अपहरण से लेकर सारी बातें कह दीं। तब उसने कहा कि हस्तिनापुर बहुत दूर है, दुष्ट जंतु तथा चोरों से रास्ता भी दुर्गम है, और कुशाग्रपुर नगर नज़दीक है। बहन ! आपका क्या विचार है ? तब मैंने कहा, श्रीदत्त ! मैं भी कुशाग्रपुर चलूंगी । बहुत दिनों के बाद बंधुवर्ग को देखूगी। इसके बाद प्रसन्न होकर वह मुझे अपने स्थान पर ले गया और बड़े विनीत भाव से मेरे लिए सारी व्यवस्था कर दी। मैंने अंगूठी छोड़कर देव से दिए गए कुंडल आदि सारे आभूषण श्रीदत्त को दे दिए। उसके बाद श्रीदत्त परिजनसहित मैं भी सार्थ के साथ चली। उसकी प्रार्थना को स्वीकार कर मैं डोली पर चढ़ गई । कुछ दिन के बाद एक जंगल में पहुंचने पर अपशकुन हुआ, फिर भी उसकी अवहेलना करके सार्थ वहाँ से आगे बढ़ा। दूसरे दिन सबेरे ही भीलों ने ही आक्रमण कर दिया । कलकल शब्द को सुनकर सार्थ के लोग व्याकुल हो गए। भीलों से मार खाकर सार्थ के लोग जब भागने लगे तब मैं भी वहाँ से भाग गई और मैंने सोचा कि फिर सार्थ के साथ मिल जाऊँगी। जब मैं चली तो मुझे दिशा का भान नहीं रहा, सार्थ तो कहीं चला गया । तब मैं भय से काँपने लगी और इसी दिशा को पकड़कर आगे चली । बहुत दूर चलने पर, पीछे घूमकर उस बन में सार्थ का अन्वेषण किया पर कहीं भी सार्थ देखने में नहीं आया । भय से कँपती हुई जब मैं इधर-से-उधर चल रही थी तो मेरे पैर में काँटे चुभ गए थे। अत्यंत थक जाने पर बस्ती का अन्वेषण करने के लिए एक ऊँचे टीले पर चढ़कर जब
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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