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पूछा कि देवी के विरह को रोकने का कोई उपाय है या नहीं ? धनदेव कहा कि केवली का वचन मिथ्या नहीं होगा, फिर भी कुछ उपाय तो अवश्य करना ही चाहिए, पल्लीपति ने मुझे यह दिव्यमणि दी थी, इसकी शक्ति विचित्र है, इसके फल अनेक बार देखे गए हैं, अतः यह मणि देवी के हाथ में दे दीजिए जिससे पूर्व वैरी देव उनका अपहरण करने में असमर्थ हो जाए, यदि किसी तरह देवी का अपहरण करेगा भी तो वह देवी का अपकार नहीं कर सकेगा, राजन ! इस बात को जानकर आप शोक नहीं करें ?
स्वप्न के अनिष्ट फल को दूर करने के लिए जिन-मंदिरों में अष्टाह्निक महोत्सव कराइए, वस्त्रादि से साधुओं की पूजा कीजिए, अभयदान की घोषणा करवाकर अनेक अभिग्रह तथा तप में उद्यत हो जाइए, यह कहकर राजा को अंगूठी देकर प्रणाम करके धनदेव राजभवन से चलकर अपने घर आया। देवी-भवन में जाकर राजा ने देवी से सारी बातें कीं, और अंगूठी देकर कहा कि देवि ? इस अंगूठी को अपने हाथ से कभी हटाना नहीं, इसके प्रभाव से क्षुद्र शत्रु सामने आ नहीं सकते, राजा ने जिन-मंदिरयात्रादि मांगलिक कार्य किए, कमलावती गर्भिणी हुई, सप्तम मास आने पर रानी को दोहद उत्पन्न हुआ । लज्जावश उसने किसी से जब नहीं कहा तब उसका शरीर सूखने लगा, राजा ने रानी को देखकर कहा कि आपकी कौन-सी इच्छा पूरी नहीं हो रही है जिससे आप इस तरह दुबली होती जा रही हैं ? तब देवी ने राजा से कहा कि मुझे ऐसा दोहद उत्पन्न हुआ है कि मैं हाथी पर च कर, आपकी गोद में बैठकर याचकों को दान दूं और आप छत्र धारण किए रहेंगे, राजा ने कहा, सुंदरि ? मैं शीघ्र आपके इस दोहद को पूर्ण कर देता हूँ।