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________________ (१०८) अनेक शारीरिक, मानसिक कष्ट को प्राप्त करते हैं, कांता वियोग संतप्त मनुष्य अनुचित चेष्टाओं को करते हुए नरक से भी अधिक पीड़ा का अनुभव करते हैं, राग से मोहित होकर ही लोग वधबंधन आदि को इस लोक में प्राप्त करके अनंतकाल तक भवभ्रमण करते हैं, जीव तब तक परमसुख को प्राप्त करता है जब तक उसके चित्त में राग प्रवेश नहीं करता। धनदेव ! इस प्रकार चिंतन करके मैंने कहा, चित्रवेग ? अब आप शोक नहीं कीजिए । कारण यह संसार दुःखों से परिपूर्ण है । जरा, मरण, रोग, वियोग आदि से भरे इस संसार में अपने कर्मों के अनुसार जीवों को दुःख प्राप्त होते हैं, किंतु जब विपत्ति आ जाए तो विषाद करना व्यर्थ है, मेरी बात सुनकर चित्रवेग ने कहा कि मुझे दुःख केवल एक ही बात का है कि नहवाहन के द्वारा पकड़कर ले जाने पर वह बिचारी कनकमाला कैसी होगी ? मेरी इस विपत्ति को जानकर वह जीती होगी या नहीं? धनदेव ! इस प्रकार वह विद्याधर मुझसे कह रहा था, इतने में वहाँ क्या हुआ, सो सुनो-- ____ कमलपत्र के समान विशाल नेत्रवाला, दिशाओं को उद्योतित करता हुआ, एक देव एकाएक आकाश से वहाँ उतरा, उसको आए हुए देखकर चित्रवेग अत्यंत प्रसन्न हो गया और अभ्युत्थान करके विनयपूर्वक उसने देव को प्रणाम किया। आसन पर बैठकर उस देव ने चित्रवेग से कहा, भद्र ? आपका कुशल है ? मणि के प्रभाव से आपकी विपत्ति दूर हुई ? चित्रवेग ने कहा कि आपके प्रभाव से सब कुशल है । केवल मुझे बड़ा कौतुक है कि पूर्वभव में आपके साथ मेरा कैसा संबंध था? और उस समय आप किस
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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