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________________ (१०६) विजय होती है ? सुप्रतिष्ठ ? इस तरह जब मैं अपनी प्रिया से बातचीत कर ही रहा था इतने में शीघ्र गति से वह नहवाहण मेरे पास आ गया। रोष से उसके कपोल पर जलकण झलक रहे थे। उसने कहा, रे नीच? इस लोक-परलोक विरुद्ध कार्य कर अब तू कहाँ जाएगा? राज विरुद्ध आचरण करके अब तू सूपकार की शाला में पड़े खरगोश की तरह कहाँ भाग जाएगा? रे नीच ? किसके बल से तूने मेरी पत्नी का अपहरण किया ? रे मूढ ? किस पापी ने तुझे ऐसी बुद्धि दी ? अथवा दैव ही तेरे ऊपर क्रोधित हो गया वह क्या, पुरुष को दण्ड से थोड़े ही पीटता है । जिस बल से तूने यह अनुचित काम किया है उसे अब मेरे सामने दिखला । पीछे नहीं बोलना कि तुझ से पुरुषार्थ दिखलाने के लिए मैंने कहा नहीं, इस तीव्र अर्धचंद्र से मैं तेरा सिर काटता हूँ यदि ताकत है तो सामने आ । सुप्रतिष्ठ ? यह कहकर उसने धनुष को खींचकर मेरे ऊपर बाण चलाया। उसका बाण मेरे पास आकर मानो शिला से टकराकर पीछे लौट गया। यह देखकर कुछ विस्मित होते हुए उसने कहा कि इस बार यदि किसी क्षुद्र विद्या के प्रभाव से बच गया तो क्या मेरे इन आग्नेय अस्त्रों से भी बच जाएगा? यह कहकर मंत्र पढ़कर उसने मेरे ऊपर बाण चलाना शुरू किया। उसकी ज्वाला चारों ओर फैल गई, किंतु मेरे पास आकर चक्कर लगाकर बह अस्त्र भी शांत हो गया। इसके बाद उसने वारुणास्त्र आदि अनेक अस्त्रों का प्रयोग किया किंतु मेरे पास आकर वे सभी विफल हो गए। यह देखकर वह राजपुत्र चकित हो गया फिर उसने कहा, नीच ? तूने बड़ा पाप किया है, अतएव सुखमृत्यु योग्य नहीं है, यह समझकर ही इन दिव्यास्त्रों ने तुझे मारा नहीं, इसलिए रे नीच ? दुःख मृत्यु
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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