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________________ (९२) नहीं रह सकती हूँ, इस बात को जानते हुए भी आप मुझे छोड़कर कहाँ चले गए ? हज़ारों देवों से विभूषित यह देवलोक आपके बिना मुझे नरक जैसा प्रतीत हो रहा है, अनेक मणियों से चमकता हुआ यह सुंदर विमान घटीयंत्रगृह जैसा लगता है, पुंनाग नाग चम्पक मंदार आदि से विराजित यह उद्यान आपके बिना असिपत्रवन जैसा लगता है । निर्मल जलवाली यह वापी वैतरणी नदी जैसी लगती है । वे ही स्त्रियाँ धन्य हैं जो मरे पति का अनुसरण करती हैं, इस देव भाव में तो मेरे लिए यह भी संभव नहीं, इस प्रकार बोलती हुई वह देवी अपने हाथों से अपने अंगों को पीटने लगी। मूच्छित हो जाती है, फिर मूर्च्छा टूटने पर उसी प्रकार विलाप करने लग जाती है कि नाथ ? वल्लभ ? आप मेरे इस विलाप को क्यों नहीं सुनतें ? आप क्यों रुष्ट हैं ? मैंने कौन-सा अपराध किया है ? मेरे प्रणय कोप को आप प्रियवचन बोलकर दूर कर देते थे, फिर आज आपने मुझे क्यों छोड़ दिया ? अपने प्रियतम के विरह में रोते उसका मुँख सूखे कमल जैसा मलिन हो गया । उसको अत्यंत दुःखसे मोहित देखकर उसकी अपनी प्रियसखी स्वयंप्रभा समझाने लगी कि प्रियसखि ? आप तो जिन - वचन सार को जानती हैं, संसार के स्वरूप से भी परिचित हैं तो फिर साधारण महिला की तरह क्यों विलाप है ? इस विलाप से कुछ होनेवाला नहीं है, यह विलाप तो अजागलस्तन के समान सर्वथा बेकार है । आप चाहे कितना विलाप करें, कितना शोक करें, अपने अंगों को भी चाहे जितना पीटें किंतु कालकृतांत से गृहीत आपके प्रिय आ नहीं सकते । अतः शोकवेग को शिथिल कर के सर्व विधि दुःखशमन जिनेंद्र धर्म में उद्यम करें, तप संयम रूप वह जिनेंद्रधर्म देव भव में प्राप्त नहीं हो सकता । अतः
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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