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शूरसेन जनपद में जैन धर्म का विकास
जन्म कल्याण की गाथाएँ उत्कीर्ण हैं । इनके अतिरिक्त जैन मस्तक
भी हैं। 21
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ज्ञात साक्ष्यों के आधार पर यही कहा जा सकता है कि कंकाली टीले पर जैन प्रतिष्ठान एक ऐसे स्तूप के चारों ओर स्थापित किया गया था जिसे अत्यन्त श्रद्धा से देखा जाता था । एक शिलालेख में जो कि एक प्रतिमा के पादपृष्ठ भाग पर उत्कीर्ण है तथाकथित देव-निर्मित 'बोदव स्तूप' पर अर्हत नन्द्यावर्त प्रतिमा के प्रतिष्ठापित किये जाने का वर्णन है। 26
बृहत्कल्प भाष्य में वर्णित है कि जिस प्रकार धर्मचक्र के लिए उत्तरापथ और जीवन्त स्वामी की प्रतिमा के कारण कौशल की ख्याति है, इसी प्रकार देवनिर्मित स्तूप से कंकाली टीला प्रसिद्ध है।
देव निर्मित स्तूप के अधिकार को लेकर जैनों एवं बौद्धों में कुछ समय प्रतिद्विन्दिता चलती रही । कालान्तर में लोग स्तूप के निर्माण की वास्तुकला भूल गए और इसे देवनिर्मित मानने लगे। सोमदेव के ‘यशस्तिलक चम्पू' में भी इसका उल्लेख मिलता है | 28
सोमदेव के अनुसार बज्रकुमार ने इसे निर्मित करवाया, विद्याधरों की अलौकिक शक्तियाँ थी 129
जिसके पास
क्षेत्र से प्राप्त कलाकृतियों में उत्कीर्ण स्तूप आकृतियाँ मिली है जो मथुरा, लखनऊ, दिल्ली के संग्रहालयों में सुरक्षित है । स्तूप का निर्माण तीर्थंकर की पूजा हेतु किया जाता था । कंकाली टीले का स्तूप पार्श्वनाथ को समर्पित है, सुपार्श्वनाथ को नहीं। जिनप्रभसूरि के अनुसार स्तूप के सामने की आकृति पार्श्वनाथ की है।
मथुरा कला शैली के अन्तर्गत निर्मित कंकाली टीले से जैन तीर्थंकर की प्रतिमाएं दो प्रकार की प्राप्त हुई हैं । ध्यानभाव में पद्मासनासीन अथवा कायोत्सर्ग मुद्रा तथा कायोत्सर्ग मुद्रा में ही सर्वतोभद्रिका प्रतिमाएं। कंकाली टीले से प्राप्त कलाकृतियाँ कुषाणकालीन हैं।