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________________ शूरसेन जनपद में जैन धर्म का विकास जैन धर्म भारतवर्ष की धार्मिक एवं सांस्कृतिक परम्परा का महत्वपूर्ण भाग है। भिन्न-भिन्न कालों एवं प्रदेशों में अर्हत, व्रात्य, श्रमण, निर्ग्रन्थ, अनेकान्ती, स्यादवादी आदि नाम भी ज्ञात होते हैं।27 संसार सागर को पार करने वाले, धर्म-तीर्थ की स्थापना एवं प्रवर्तन करने वाले जन्म-मरण, सुख-दुख पर विजय प्राप्त करने वाले तीर्थंकर कहलाते हैं। निर्ग्रन्थ उन्हें कहा जाता है जो मानव सम्पूर्ण अन्तरंग और बाह्य परिग्रह को त्याग कर दे। तीर्थंकरों, श्रमणों, निर्ग्रन्थों, अर्हतों या जिनदेवों द्वारा स्वयं अनुभूत, आचरित एवं संसार के समस्त जीवों के हित सुख के लिए उपदेशित और प्रवर्तित धर्म-व्यवस्था का नाम ही 'जिन' अथवा 'जैन' धर्म हैं। जैन धर्म का स्वयं का दर्शन, ज्ञान, संस्कृति एवं विरासत है। ___जैन मान्यतानुसार यह विश्व अपने उपादानों सहित सत्ताभूत, वास्तविक और अनादि विधान है। संसार में उपस्थित समस्त पदार्थों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष परिवर्तन होते रहते हैं। जिनका कारण कालद्रव्य है। व्यवहार काल की इकाई, ‘कल्प' को सबसे बड़ी इकाई माना गया है। अनन्तकाल समाप्त हो चुके हैं और यह संसार अनेक कल्पों तक चलता रहेगा। प्रत्येक कल्प के दो विभाग होते हैं। एक अवसर्पिणी जिसे अधोमुख या अवनतिशील कहा जाता है। दूसरा उत्सर्पिणी जिसे उर्ध्वमुख या उन्नतिशील कहा जाता है। इनमें से प्रत्येक के छः आरक होते हैं। अवसर्पिणी में प्रथम से छठे तक सभी आरक क्रम से चलते हैं और उत्सर्पिणी काल में यह क्रम विपरीत हो जाता है। अवसर्पिणी में यह क्रम सुखमा-सुखमा, सुखमा-सुखमा, दुखमा-दुखमा और दुखमा-दुखमा छः आरक हैं। उत्सर्पिणी काल में यह क्रम उल्टा हो जाता है जैसेदुखमा-दुखमा, सुखमा-सुखमा, सुखमा-सुखमा। ___ शूरसेन जनपद का धार्मिक एवं सांस्कृतिक इतिहास अत्यन्त गौरवशाली रहा है। शूरसेन जनपद को यह गौरव इसलिए प्राप्त है कि यहां पर भारत के सभी प्रमुख धर्म-सम्प्रदायों का विकास हुआ था।
SR No.022668
Book TitleShursen Janpad Me Jain Dharm Ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSangita Sinh
PublisherResearch India Press
Publication Year2014
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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