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शूरसेन जनपद में जैन संस्कृति
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स्तूप का निर्माण करने का प्रचलन था। मृत्यु के पश्चात् शव को चन्दन, अगरू, तुरूक्क, घी और मधु डालकर जलाया जाता था। ___ शरीर के जल जाने के पश्चात् अस्थियों को एकत्र कर उन पर स्तूप की संरचना की जाती थी। प्रथम जैन तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के निर्वाण के पश्चात् उनकी अस्थियों पर चैत्य-स्तूप का निर्माण किया गया। इस समय से भस्म को एकत्र कर उसके ऊपर स्मारकों का निर्माण प्रारम्भ हुआ।
शूरसेन जनपद में अन्तिम केवलि जम्बूस्वामी के निर्वाण के पश्चात् उनकी स्मृति में चौरासी क्षेत्र में स्तूप निर्मित कराये जाने का उल्लेख है।
मृतक-पूजन का भी उल्लेख मिलता है कि मृत्यु के पश्चात् शव का पूजन करने के पश्चात् दाह संस्कार किया जाता था।
अनाथ मृतक जिसका कोई उत्तरदायी नहीं होता था, उसकी अस्थियों को कलश में रखकर गंगा जी में प्रवाहित कर दिया जाता था।” कभी-कभी शव को पशु-पक्षियों के भक्षण के लिए जंगल में भी छोड़ दिया जाता था। परन्तु यह क्रिया-विधि अधिक प्रचलित नहीं थी।
जैन मुनि के शरीरान्त होने पर उसकी नीहरण क्रिया की विस्तृत विधि का उल्लेख मिलता है।
मृतक संस्कार से यह विदित होता है कि मनुष्य का अन्तिम समय एक समान होते हुए भी अन्तिम संस्कार में विभिन्नता दृष्टिगोचर होती है।
इस प्रकार शूरसेन जनपद में जैन संस्कृति का विकास स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। संस्कृति सीमित नहीं होती है अतः संस्कृति पर देश-काल एवं परिस्थितियों का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है जैन संस्कृति का हृदय विशाल है। जैन संस्कृति की आत्मा में भारतीय एवं जन संस्कृति का दर्शन होता है। __ बड़े-बड़े झंझावतों के बावजूद जैन संस्कृति की धारा शूरसेन जनपद की धरती से लुप्त नहीं हुई। मृत्यु ही हारती है, विजय सदा जीवन की