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________________ 130 शूरसेन जनपद में जैन धर्म का विकास __हरिभद्र सूरि ने जैनागमों की भाषा को अर्धमागधी न कहकर प्राकृत कहा है। ‘मार्कण्डेय' के मतानुसार शौरसेनी के समीप होने से मागधी को ही अर्धमागधी कहा जाता है। __ जैन संस्कृति निवृत्ति मूलक पुरुषार्थ प्रधान व्यक्तिवादी धर्म पर आधारित है। जैन संस्कृति वस्तु की स्वतंत्रता, आत्मा की स्वतंत्रता एवं स्वावलम्बन पर विश्वास करती है। यह गुण प्रधान संस्कृति है जिसमें उच्च आचरण एवं संस्कार व्यक्ति को श्रेष्ठता प्रदान करते हैं। __ जैन संस्कृति की मान्यता है कि विश्व अनादि और अनन्त है। जैन संस्कृति एवं आचार का मूल आधार अंहिसा, दया, अपरिग्रह अनेकान्त एवं समता भाव है। शूरसेन जनपद में जैन संस्कृति के अन्तर्गत आमोद-प्रमाद एवं मनोरंजन का भी महत्वपूर्ण स्थान रहा है। शूरसेन जनपद के निवासी अनेक प्रकार के आमोद-प्रमोद और मनोरंजन किया करते थे। उत्सव, यज्ञ, पर्व, गोष्ठी आदि ऐसे त्यौहार मिल जुलकर मनाते थे। सदैव ही मनोरंजन का जीवन में महत्व रहा है। “ज्ञातधर्मथांग' से ज्ञात होता है कि प्रजा के मनोरंजन के लिए राज्य की ओर से उचित प्रबंध किये जाते थे। __ औपपातिक और राजप्रश्नीय आदि जैन ग्रन्थों से यक्षायतनों का अस्तित्व ज्ञात होता है जिनका स्वरूप वर्तमान मनोरंजन गृहों के समान था। अवकाश के समय लोग यहाँ एकत्र होकर नृत्य, संगीत, मल्लयुद्ध, कथा, कहानी, बाजीगरों तथा जादूगरों के विविध खेल-तमाशों का आनन्द उठाते थे। वासुदेवहिण्डी से यह विदित होता है कि गाँव के बाहर ऐन्द्रजालिका जादू का खेल दिखाया जाता था।63 जातक कथाओं में मनोरंजन के लिए सांप का खेल दिखाकर आजीविका अर्जित करने वाले सपेरों का उल्लेख किया गया है । ' मानव सदैव से उत्सवप्रिय रहा है। उत्सव के अवसर पर स्त्री-पुरुष, बालक,
SR No.022668
Book TitleShursen Janpad Me Jain Dharm Ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSangita Sinh
PublisherResearch India Press
Publication Year2014
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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