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________________ शूरसेन जनपद में जैन धर्म का विकास तक साथ-साथ विकसित होते रहे । फलस्वरूप इस जनपद में समन्वय तथा सहिष्णुता की भावनाओं में वृद्धि हुई । इन प्रमुख धर्मों के केन्द्रों में बिना पारस्परिक ईर्ष्या-द्वेष के सांस्कृतिक प्रगति होती रही । इस प्रकार शूरसेन जनपद में इस धार्मिक सांस्कृतिक समन्वय ने एक उच्चतम संस्कृति का सृजन किया जहाँ पर भगवान कृष्ण ने गीता का उपदेश दिया तो वहीं पर भगवान महावीर ने अहिंसा के सिद्धान्त को विश्वव्यापी बना दिया । जैन धर्म में राग-द्वेष को भी हिंसा माना गया है । " 122 सांस्कृतिक विकास में प्रमुख केन्द्र तक्षशिला, शूरसेन वाराणसी, देवगढ़, उज्जयिनी, विदिशा, नालन्दा विक्रमशिला, प्रतिष्ठान, श्रवणबेलगोला, कलिंग, बल्लभी और पुण्ड्रवर्धन आदि का महत्वपूर्ण योगदान था । " शूरसेन जनपद में जैन धर्म के अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर का समवसरण आया था। उनके उपदेशों को सुनकर नगर श्रेष्ठी उदितोदय, उनके मन्त्री, राज्याधिकारी और अनेक नागरिक भगवान महावीर के धर्मानुयायी बन गये थे। शनैः शनैः शूरसेन जनपद में जैनधर्म जन साधारण का धर्म बन गया और वहाँ जैन संस्कृति का दर्शन प्रतिमाकला एवं स्थापत्यकला में स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है, तथा अन्य संस्कृतियों पर भी इसका प्रभाव दृष्टव्य है। महावीर की मृत्यु के पश्चात जैन धर्म दो भागों में विभक्त हो गयादिगम्बर एवं श्वेताम्बर । महावीर के प्रमुख शिष्यों में अन्तिम एवं सर्वज्ञ जम्बू स्वामी थे।" जम्बू स्वामी ने जैन संघ के संचालन का भार चौबीस वर्षों तक वहन किया। 12 जम्बूस्वामी को दिगम्बर तथा श्वेताम्बर सम्प्रदायों के अनुयायी अपना-अपना आचार्य मानते हैं जम्बू स्वामी जैन आचार्यों में अन्तिम केवली थे । उनके पश्चात् किसी को केवल ज्ञान प्राप्त नहीं हो सका । अन्तिम केवली श्री जम्बू स्वामी के शूरसेन जनपद के चौरासी क्षेत्र में मोक्ष प्राप्त करने के कारण यह स्थान पावन सिद्ध क्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध हुआ। 14
SR No.022668
Book TitleShursen Janpad Me Jain Dharm Ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSangita Sinh
PublisherResearch India Press
Publication Year2014
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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