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________________ 108 शूरसेन जनपद में जैन धर्म का विकास शुंग-कुषाण काल में अध्ययन क्षेत्र की शिल्पशालाओं में सृजनात्मक प्रक्रिया अपने चरमोत्कर्ष पर थी। परिमणामस्वरूप यह नगर एक महत्वपूर्ण कला एवं स्थापत्य का केन्द्र बन गया। वैश्यों एवं समृद्ध व्यापारी वर्ग की धन-सम्पत्ति का जैन वास्तु-स्मारकों की समृद्धि में बहुत अधिक योगदान रहा। वैश्य एवं व्यापारी वर्ग में प्रमुख रूप से श्रेष्ठी, सार्थवाह, वाणिज्य, गन्धिक आदि थे और सामान्य जन की अपेक्षा उनकी संख्या अधिक थी। शिल्पकारों को अपनी अभिव्यक्ति करने का प्रमुख साधन चित्तिदार लाल बलुआ पत्थर था, जिसे सीकरी, रूपवास तथा ताँतपुर जैसे स्थानों से मंगाया जाता था। ___ एक शिलालेख जो ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी के मध्य में एक जैन मन्दिर के अस्तित्व में होने का प्रबल साक्ष्य प्रदान करता है, जिसमें उत्तरदासक नामक श्रावक द्वारा एक पासाद-तोरण समर्पित किए जाने का प्रमाण मिलता है।27 ___ प्रारम्भ में जैन स्तूपों की बनावट बौद्ध स्तूपों के समान थी। सर्वाधिक प्राचीनतम जैन स्तूप के निर्माण का उल्लेख कंकाली टीले की मुनिसुव्रत की प्रतिमा की चरण-चौकी में उत्कीर्ण है। यह वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना है। ___ जैन धर्म की विभिन्न आवश्यकताओं ने प्रमुख प्रयोजनों के लिए विशेष भवनों की विशेषताओं पर अपनी छाप छोड़ी।" जैनों ने अनेक क्षेत्रों और कालों की प्रचलित शैलियों का अपने वास्तु निर्माण में प्रयोग किया। जैन मन्दिरों का प्रमुख उद्देश्य यही है कि उस स्थान पर शान्त मन से तीर्थंकरों के गुणों को चिन्तन कर सकें। ___ जैन पुराणों में नगर, राजप्रासाद, भवन, हर्म्य, तोरण, वातायन, आँगन, सोपान, स्तम्भ, वन, उद्यान, कूप, देवालय और गुफा आदि वास्तुकला का उल्लेख किया गया है। वास्तुकला का सुन्दर एवं जीवन्त
SR No.022668
Book TitleShursen Janpad Me Jain Dharm Ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSangita Sinh
PublisherResearch India Press
Publication Year2014
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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