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शूरसेन जनपद में जैन धर्म का विकास
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सुरक्षा की दृष्टि से तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के समय में स्तूप चारों ओर ईंट से बाड़ बना दी गई।
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इस स्तूप के 'स्वर्ण निर्मित' एवं 'रत्न जटित' होने की बात तो अनुश्रुति हो सकती है किन्तु वह जैन धर्म का प्राचीनतम स्तूप था, जो प्रागैतिहासिक काल में निर्मित हुआ था ।
कंकाली टीले के उत्खनन द्वारा एक अभिलिखित शिलापट्ट प्राप्त हुआ, जिस पर 'देवी निर्मित बौद्ध स्तूप उत्कीर्ण है । 18 कंकाली टीले से प्राप्त उक्त शिलालेख पर अंकित शक संवत् 79 में वह बहुत अधिक प्राचीन एवं अपिरिचित हो गया था कि उसके निर्माण काल और निर्माता के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं थी । फलतः उसे 'देवनिर्मित स्तूप' की संज्ञा दी गई थीं ।"
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जैन धर्म में पूजा पद्धति के रूप में प्रतीकात्मक पूजा प्रारम्भ हुई और फलस्वरूप आयागपट्ट का निर्माण प्रारम्भ हुआ । इस पर स्तूप, मन्दिर एवं प्रतिमाओं का अंकन दृष्टव्य है।
प्रारम्भ में पाषाण की चौकोर खण्ड पर जैन धर्म के अष्ट मांगलिक चिन्ह-स्वास्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त, वर्धमानक, भद्रासन, कलश, मत्स्य-युग्म और दर्पण का अंकन किया जाता था । कभी-कभी इन पर निर्माताओं और उनके उपास्य तीर्थंकरों के नाम भी उत्कीर्ण किये जाते थे। इन प्रस्तर खण्डों को 'आयागपट्ट' कहा गया है
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‘आयाग' शब्द संस्कृत भाषा के 'आर्यक " शब्द से बना है, जिसका अर्थ है 'पूज्य' अथवा 'पूजनीय' ।
जैन वास्तुकला चैत्य वृक्ष का बहुत ही प्रमुख स्थान है । चैत्य वृक्ष का निर्माण प्रारम्भ से किया गया है । सुम्सुमारपुर के उपवन में अशोक वृक्ष के नीचे महावीर स्वामी ध्यानस्थ हुए थे । "
‘आवश्यक निर्युक्ति' में तीर्थंकर के निर्वाण प्राप्ति के पश्चात् स्तूप, चैत्य वृक्ष एवं जिनगृह निर्माण किये जाने का उल्लेख है। इस पर टीका करते हुए हरिभद्रसूरि ने भगवान ऋषभदेव के निर्वाण के पश्चात्