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________________ अध्याय पंचम् शूरसेन जनपद में जैन वास्तुकला जैन धर्म की वास्तुकला में उसकी आत्मा दृष्टिगोचर होती है। जैनों के तीर्थस्थल वास्तविक रूप में स्थापत्य कला के भण्डार स्वरूप हैं। इस सम्प्रदाय ने अपने तीर्थों को प्रायः बस्ती से दूर अथवा पहाड़ों आदि में स्थापित किया। जिसका मूल उद्देश्य शांत वातावरण में एकाग्रचित्त एवं आत्मिक चिन्तन करना रहा है। ऐसे स्थानों से उपलब्ध मन्दिर एवं जैन प्रतिमाएँ अपनी एकाग्रता से भक्तों को ईश्वर के सानिध्य की अनुभूति कराती हैं। कला की आवश्यकता कला के भावनात्मक पक्ष को प्रकट करने के लिए हुई और कला के विभिन्न रूपों का आविष्कार हुआ। ___ जैन धर्मानुयायी अपने मन्दिर जंगल या पहाड़ियों के ढलाव में और, जहाँ असीम क्षेत्र हो, वैसे वियावान स्थानों में बनाना पसन्द करते थे। समुद्र सतह से तीन हजार फुट ऊँचे शतुजंय एवं गिरनार पर्वतों के शिखर पर मन्दिरों के भव्य मन्दिर विद्यमान हैं। मन्दिर नगर निर्माण करने की विशिष्टता का अन्य धर्मों की अपेक्षा जैनों ने ही विशेष रूप से स्वीकार किया है।' सभी भारतीय कलाएँ धार्मिक ही हैं और धर्म से सम्बन्धित होने के कारण अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। शक-कुषाण युग में कला केन्द्र के रूप में शूरशेन जनपद की विशेष उन्नति हुई। यहाँ अन्य धर्मों की भाँति जैन धर्म का असाधारण विकास हुआ। इस क्षेत्र में ईर्ष्या द्वेष रहित विभिन्न कलाएँ पल्लवित होती रही
SR No.022668
Book TitleShursen Janpad Me Jain Dharm Ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSangita Sinh
PublisherResearch India Press
Publication Year2014
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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