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शूरसेन जनपद में जैन धर्म का विकास
अध्ययन स्रोत में पुरातात्विक एवं साहित्यिक साधनों का प्रयोग किया गया है तथा साथ ही साथ विदेशी यात्रियों के यात्रा-वृतान्तों का भी प्रयोग किया गया है।
द्वितीय अध्याय में शूरसेन जनपद में जैन धर्म के क्रमागत विकास का उल्लेख किया गया है। जैन धर्म एवं कला को विभिन्न युगों में प्राप्त होने वाले राजकीय लोगों के प्रोत्साहन और संरक्षण तथा धार्मिक एवं आर्थिक पृष्ठभूमि पर चर्चा की गई है। __ तृतीय अध्याय में शूरसेन जनपद में जैन धर्म के प्रमुख केन्द्रों का वर्णन है जिसमें कंकाली टीला, सोंख, शौरीपुर, बटेश्वर आदि केन्द्रों से प्राप्त जैन कलाकृतियों का काल परिचय एवं साथ ही साथ कलात्मक महत्व भी वर्णित है। इन केन्द्रों से प्राप्त जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाओं से ज्ञात होता है कि प्राचीन समय में जैन धर्म सामान्य जन का धर्म था। __चतुर्थ अध्याय में शूरसेन जनपद में जैन मूर्तिकला का वर्णन किया गया है। स्थान-स्थान पर जैन मूर्तिकला का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। जैन मूर्तिकला में ऐतिहासिक सर्वेक्षण अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुआ। मथुरा कला शैली को भी उल्लिखित किया गया है।
पंचम अध्याय में जैन वास्तुकला पर प्रकाश डाला गया है। शूरसेन जनपद में जैन वास्तुकला के अवशेष अत्यल्प मात्रा में प्राप्त हुए हैं परन्तु स्तूप निर्माण के क्रम में देव निर्मित स्तूप का वर्णन किया गया है। शूरसेन जनपद के विभिन्न क्षेत्रों से प्राप्त जैन वास्तुकला के क्रमागत विकास की चर्चा की गई है।
षष्टम् अध्याय में शूरसेन जनपद में जैन संस्कृति के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डाला गया है। जैन संस्कृति के अन्तर्गत सामाजिक दशा एवं आर्थिक दशा के साथ ही साथ सांस्कृतिक उन्नति को भी उल्लिखित किया गया है।
सप्तम अध्याय में शूरसेन जनपद में जैन धर्म के योगदान के अन्तर्गत दर्शन भाषा, साहित्य एवं ललित कला का अध्ययन दृष्टव्य है। जैन धर्म के महत्वपूर्ण योगदान पर प्रकाश डाला गया है।