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शूरसेन जनपद में जैन धर्म का विकास
अंकन नहीं है। नेमिनाथ के साथ बलराम एवं कृष्ण का उत्कीर्णन मथुरा के बाहर का एकमात्र उदाहरण है।121 ___ ग्यारहवीं शती ई. की एक नेमि प्रतिमा पटना संग्रहालय में उपलब्ध है।122
जैन धर्म में प्रतीक पूजा जैन धर्मानुयायियों ने तीर्थंकर की मानवांकन के पूर्व प्रतीक स्वरूप की पूजा-अर्चना प्रारम्भ कर दी थी। प्राचीन पुरातात्विक अवशेष शूरसेन जनपद के विभिन्न स्थानों से प्राप्त हुए हैं। प्रतिमा निर्माण के पूर्व वर्णित क्षेत्र में जिन भगवान की पूजा प्रस्तर के चौकोर शिलापट्टों पर की जाती थी, जिन्हें आयागपट कहा गया है।123 _ 'आयाग' या 'आर्यक' शब्द का अर्थ 'पूजनीय' है। इसीलिए डॉ. ब्यूहलर ने इन्हें 'टैबेलेट्स ऑव होमेज ऑर वर्शिप' कहा है।124
रामायण में भी वर्णित ‘आयाग' शब्द का अर्थ टीकाकार ने 'याजनीय देवता' अर्थात् पूजनीय देवता किया है।125
जिस प्रकार नागार्जुनकोण्डा से प्राप्त बौद्ध आर्यक खम्भा मात्र पूजा के लिए थे, उनका वास्तुगत उपयोग नहीं था, उसी प्रकार अध्ययन क्षेत्र के जैन आयागपट्ट भी स्वतन्त्र प्रस्तर-फलक थे। इनका उपयोग केवल अर्हन्त पूजा के लिए किया जाता था।
वास्तुकला से इनका कोई सम्बन्ध नहीं था। इस तथ्य की पुष्टि लवण शोभिका की पुत्री वसु द्वारा स्थापित एक आयागपट्ट के अभिलेख से हो जाती है, जिसमें कहा गया है कि यह आयागपट्ट अर्हत की पूजा के लिए था।128 ___ जैन धर्म में प्रतीक पूजा के रूप में चक्र का विशेष स्थान है। प्रथम शती ई. पू. का एक चक्र अध्ययन क्षेत्र से प्राप्त हुआ है।।29 जिनमें दायीं
ओर तीन मानवाकृतियां अंकित है। इनमें अंकित प्रतिमाओं के वस्त्र घिस गए हैं। इसी प्रकार का धर्म-चक्र स्तम्भ धातु पर अंकित पटना संग्रहालय में दृष्टव्य है।130