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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य विराधना अपनी कायिक प्रवृत्ति से अशक्य ही हो तो उस मल्लक में रहे श्लेष्म को सूखने की भी क्या ज़रूरत? तो फिर निरर्थक अधिक उपधि का ग्रहण क्यों? व्यर्थ परिग्रह क्यों बढ़ाना ? . श्लेष्म मल्लक की बात से परंपरा की प्रबल पुष्टि |露麗麗麗露圖區题圖圖圖圖圖圖题羅圖
इस तरह, तीन श्लेष्ममल्लक को रखने का विधान कर के शास्त्रकारों ने यह बात अत्यंत स्पष्ट की है कि संमूर्छिम मनुष्य की विराधना से बचने के लिए श्लेष्मादि अशुचि जल्द ही - मुहूर्त के पहले पहले सूख जाए या रूपांतरण प्राप्त हो वैसा प्रबंध करना वह साधुत्व की मर्यादा है। उपर्युक्त समस्त विचारणा द्वारा स्पष्टतया इतना सार निकलता है कि - (१) शरीर के बाहर निकली हुई अशुचि में ही संमूर्छिम मनुष्य की
उत्पत्ति होती है। (२) यदि अंतर्मुहूर्तादि स्वरूप समयमर्यादा में वह अशुचि अत्यंत
सूख जाए, भस्मादि से अत्यंत मिश्रित हो जाए तो संमूर्च्छिम
मनुष्य की विराधना से बच सकते हैं। (३) शरीर में से बाहर निकली अशुचि में तुरंत नहीं, अपितु कालांतर
में = दो घडी के बाद (देखिए पृ.-१२) संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति होती है।
'अशुचि सूख जाने से उसमें संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति नहीं होती' - इस बात की प्रतीति एक ओर साबिती द्वारा हम कर सकते हैं। पूर्वोक्त (देखिए पृ.-६+७) प्रज्ञापनासूत्र के अंतर्गत जो 'सुक्केसु' और 'सुक्कपुग्गलपरिसाडेसु'दो पद हैं, उसकी व्याख्या करते हुए, उन दोनों के बीच की भेदरेखा स्पष्ट करते हुए स्थानकवासी संप्रदाय में मान्यताप्राप्त श्रीघासीलालजी महाराज उसकी वृत्ति में बताते हैं कि -
“सुक्केसु वा = शुक्रेषु वा, सुक्कपुग्गलपरिसाडेसु वा =