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________________ संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य संभवित हैं। तथा उसे परठने की जगह अल्प है, अथवा संसक्त है.... अतः गृहस्थों का आवागमन बाहर में न हो अथवा अत्यंत अल्प हो तब रात्री को उसे परठना आवश्यक बना है। तथा इसीलिए दिन में मात्रक में प्रस्रवणादि रखने का विधान है कि जो कारणिक ही है । अतः पूर्वप्रदर्शित रीत्या (पृ. ४६-४८) ही उसका समाधान कर लें। यहाँ मुख्य बाबत यह बतानी है कि 'कायिकी भूमि अल्प हो तो शास्त्रकारों को वहाँ मूत्रादि का परिष्ठापन इष्ट नहीं' - ऐसा जो ध्वन्यार्थ/व्यंग्यार्थ प्रस्तुत में निकलता है उसके द्वारा मूत्रादि लंबे समय तक आर्द्र अवस्था में न रहे, शीघ्रतया सूख जाए - वैसा शास्त्रकारों को इष्ट होना ज्ञात होता है। ___अल्प कायिकी भूमि में परठने से प्लावन होना, मूत्रादि का एकत्र जमा होना वगैरह आपत्तियाँ अति-अति प्रचुर प्रमाण में मूत्रादि परठने से ही शक्य है। परंतु उस अल्प कायिकी भूमि में दो-चार महात्मा दो-चार बार मूत्रादि को सावधानी पूर्वक परठ दे उतने मात्र से प्लावन-डबरा वगैरह की संभावना ज्ञात नहीं होती। हाँ ! वह भूमि अत्यंत गीलीमूत्रादि से अत्यंत व्याप्त हो जाए वैसा संभवित है। यदि "लंबे समय तक पड़े रहने पर भी संमूर्छिम मनुष्य की विराधना नहीं होती" - वैसा शास्त्रकारों को मान्य होता तो अल्प कायिकीभूमि में परठने के बजाय विशाल भूमि में ही प्रस्रवण परठने का विधान क्यों किया? अल्प कायिकीभूमि में ही प्रस्रवण का विधान किया होता न ! चाहे लंबे समय तक न सूखे । रामलालजी महाराज की मान्यता अनुसार तो लंबे समय तक न सूखने पर भी छोटीसी जगह में प्रस्रवण परठने के अपने प्रयास से संमूर्छिम मनुष्य की विराधना तो नहीं होने वाली। चूर्णि का यह उल्लेख स्पष्टतया इस बात को ध्वनित करता है कि 'मनुष्य के मल-मूत्रादि दीर्घकाल तक आर्द्र अवस्था में पड़े हो तो उनमें ६१
SR No.022666
Book TitleSamurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijaysuri, Jaysundarsuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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