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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य किरण न गिरे वह अनुद्गत स्थान अयोग्य समझें।"(अनुवादकार : मुनि श्रीधर्मतिलकविजयजी)
८00 से भी अधिक साल पुरानी यह ग्रंथरचना है। उसके कर्ता श्रीहरिश्चंद्र महाराज, नवांगीव्याख्याकार श्रीअभयदेवसूरि के शिष्य हैं। परिणामतः यह बात ८00 से भी अधिक वर्ष प्राचीन सिद्ध होती है । एवं इसमें उल्लिखित श्रीनिशीथपंजिका ग्रंथ तो उससे भी अधिक प्राचीन सिद्ध होता है। इस तरह सदिओं पुरानी यह पवित्र परिपाटी है।
रामलालजी महाराज ने पुनः पुनः यह बात दोहराई है और आज तक दोहरा रहे हैं कि - ‘संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति शरीर के बाहर निकली हुई अशुचि में ही अंतर्मुहूर्त के बाद होती है - यह बात मूल आगमों में तो कहीं नहीं है, आगम के व्याख्यासाहित्य में और प्राचीन अन्य शास्त्रों में भी कहीं नहीं।'
परंतु प्रस्तुत पाठ निशीथसूत्र की प्राचीन व्याख्या निशीथपंजिका का और आगम के प्राचीन व्याख्याकार श्रीअभयदेवसूरि महाराज के शिष्यरत्न श्रीहरिश्चंद्र महाराज द्वारा रचित प्रश्नपद्धति ग्रंथ का है। तथा इस पाठ में अत्यंत साफ-साफ 'डंके की चोट' पर स्पष्ट लिखा है कि संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति शरीर में से बाहर निकली हुई अशुचि में मुहूर्त के बाद होती है। यह एक ही पाठ रामलालजी महाराज की आगमनिष्ठा की कसौटी करने वाला है। इस एक पाठ से भी आगमनिष्ठासंपन्न विद्वान मनीषी को संमूर्छिम मनुष्य की प्रवर्त्तमान परंपरा को सलामी देनी चाहिए... अब “यह मूल आगम का पाठ नहीं. यह ग्रंथ अप्रमाणभूत है, आगमविरोधी है" - इत्यादि कथन अत्यंत जघन्यकक्षा का और आत्मवंचनारूप कहा जाएगा। रामलालजी महाराज! महानिशीथ सूत्र के सावधाचार्य को स्मृतिपट पर रख कर कृपया त्वरित इस मृषामान्यता से निवृत्त हो ।