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________________ संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य किरण न पहुँचे वैसा क्षेत्र - इस अर्थ को किसी भी प्राचीन व्याख्या का आधार नहीं है' - यह बात भी समूची बेबुनियाद है, निराधार है। सबसे पहले अलग-अलग विवेचन देख लें। . निशीथसूत्र के भिन्न-भिन्न विवेचन . स्थानकवासी संप्रदाय : युवाचार्य श्रीमधुकरमुनि के प्रधान संपादक की राहबरी तले श्रीआगमप्रकाशन समिति, ब्यावर से प्रकाशित निशीथसूत्र अनुवाद ___“जो भिक्षु दिन में, रात्रि में, या विकाल में उच्चार-प्रस्रवण के वेग से बाधित होने पर अपना पात्र ग्रहण कर या अन्य भिक्षु का पात्र याच कर उसमें उच्चार-प्रस्रवण का त्याग कर के जहां सूर्य का प्रकाश (ताप) नहीं पहुँचता है ऐसे स्थान में परठता है या परठने वाले का अनुमोदन करता है। इन ८0 सूत्रगत दोषस्थानों का सेवन करने पर लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। विवेचन :- ‘अणुग्गए सूरिए' इसका सीधा अर्थ 'सूर्योदय के पूर्व नहीं परठना' ऐसा भी किया जाता है, किन्तु यह अर्थ आगमसम्मत नहीं होने से असंगत है। उसके कारण इस प्रकार हैं - सूत्र में प्रयुक्त 'दिया वा' शब्द निरर्थक हो जाता है। क्योंकि १. दिन में जिसने मलत्याग किया है उसकी अपेक्षा से 'अणुग्गए ___ सूरिए' इस वाक्य की संगति नहीं हो सकती है। २. रात में मल-मूत्र पडा रखने से सम्मूर्छिम जीवों की विराधना ___होती है और अशुचि के कारण अस्वाध्याय भी रहता है। ३. रात्रि में परठने का सर्वथा निषेध हो जाता है।
SR No.022666
Book TitleSamurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijaysuri, Jaysundarsuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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