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________________ संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य समय Direct मूत्रादि करने के लिए बाहर जाना शास्त्रकारों को उत्सर्गतः इष्ट हो तो मात्रक में किए हुए मूत्रादि के परिष्ठापन हेतु बाहर जाना शास्त्रकारों को उत्सर्गतः इष्ट क्यों नहीं बन सकता? रात्रि के समय परिष्ठापन हेतु बाहर जाने की बात को ले कर उत्सर्ग-अपवाद की व्यवस्था बदल जाए वैसा कोई तफावत उक्त दो घटनाओं में है ही नहीं। मात्रक में किए हुए मूत्रादि रात को बाहर परठने में चौरादि के भय हो तो क्या वैसे भय Direct मूत्रादि करने के लिए बाहर जाने में अपने आप खिसक जाएंगे? अतः शास्त्रकारों के आशय की, अपनी मान्यता की दिशा में खिंचातानी न करें तो स्पष्ट ख्याल आ जाता है कि रात्रि के समय बाहर जाने में कायम भयादि जोखिम होते ही हैं - वैसा नहीं है। सामान्य भयस्थानों का निवारण तो बृहत्कल्पसूत्र के प्रथम उद्देशक के ४८ + ४९ सूत्र में दर्शितरीत्या २-३ साधुओं के एकसाथ जाने से शक्य है। अतः उत्सर्गमार्ग यह है कि साधु भगवंत को रात्रि के समय भी मूत्रादि परिष्ठापन के लिए बाहर जाना चाहिए। जब मात्रक का उपयोग किया गया हो तब स्पष्ट है कि कोई आपवादिक परिस्थिति उठ खड़ी हुई है। किसी भी कारणवश बाहर Direct मूत्रादि शंकानिवारण के लिए जाना अशक्य हो तभी तो मात्रकादि का उपयोग किया गया है। अतः वैसे समय में रात्रि को बाहर परिष्ठापन के लिए जाना प्रबल आत्मविराधनादिरूप दोषों का कारण है। अतः उसका निषेध कर के सुबह के समय परठने का विधान प्रस्तुत निशीथसूत्र में किया है। मात्रकस्थ मूत्र के परिष्ठापन की अपेक्षा वह विधान उत्सर्ग होने पर भी वस्तुतः वह अपवाद है। अनेकांत दृष्टि के बिना शीघ्रतया यह तत्त्व समझ में नहीं आएगा। जब शास्त्रकारों को रात्रि के समय परिष्ठापन हेतु के लिए बाहर
SR No.022666
Book TitleSamurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijaysuri, Jaysundarsuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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