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________________ संमूर्च्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य द्वीप के बाहर पहुँच जाए वैसा तो सर्वत्र संभव है नहीं । समय- संयोग अनुसार उसमें परिवर्तन को अवकाश है । अतः केवली ने देखा कि यह साधु अंतर्मुहूर्त्त के बाद ढाई द्वीप के बाहर जाने वाला है, अतः तदनुसार उसके शरीर में संमूर्च्छिम मनुष्यों की योनि का अचानक - अहेतुक ध्वंस, नए मनुष्यों की अनुत्पत्ति और पुराने मनुष्यों का नाश रामलालजी महाराज को मानना ही रहा । संमूर्च्छिम मनुष्य के विषय में यह कितनी क्लिष्ट और अनागमिक परंपरा - कल्पना लगती है । साथ में ढाई द्वीप के बाहर जाने का प्रायश्चित्त किस शास्त्र में मिलेगा ? क्योंकि ढाई द्वीप के बाहर मुनि न जाए तो शरीर में संमूर्च्छिम योनि का नाश न होता, उनकी उत्पत्ति बरकरार रहेती । ढाई द्वीप के बाहर मुनि जाए तो संमूर्च्छिम मनुष्यों का, तथा उनकी योनि का उपर्युक्त पद्धति से नाश मानना पड़ता है । यह तो मुनि की प्रवृत्ति से संमूर्च्छिम की विराधना हुई । अतः उसका प्रायश्चित्त भी दर्शाना ही रहा। तथा संमूर्च्छिम मनुष्यों की कायिक विराधना शक्य न होने का कथन भी मृषा साबित होगा, क्योंकि उपर्युक्त अनुसार, ढाई द्वीप के बाहर जाने की कायिक प्रवृत्ति से संमूर्च्छिम मनुष्य की विराधना सिद्ध होती है । अत्यंत शांत चित्त से यह बाबत विचारणीय है । यदि शरीर के बाहर निकली अशुचिओं में ही संमूर्च्छिम मनुष्य की उत्पत्ति मान्य की जाए तो इस आपत्ति को अवकाश ही नहीं रहता, क्योंकि गर्भज मनुष्य स्वयं ढाई द्वीप के बाहर जाता है । परंतु अपने व्युत्सृष्ट मलादि को साथ में ले कर नहीं जाता । तथा ढाई द्वीप के बाहर जा कर अशुचि विसर्जन नहीं करता अथवा विसर्जन करता हो तो भी उसमें क्षेत्रप्रत्ययिक /क्षेत्रप्रभाव से योनि का निर्माण न होने से संमूर्च्छिम मनुष्य की उत्पत्ति नहीं होती । सिद्धांत के खातिर सैद्धांतिक रूप में यदि कोई ऐसा प्रश्न करे २५
SR No.022666
Book TitleSamurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijaysuri, Jaysundarsuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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