________________
संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य सम्मूच्छिममनुष्याणां च विवृता योनिः, तेषामुत्पत्तिस्थानस्य जलाशयादेः स्पष्टमुपलभ्यमानत्वात्, गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यस्थेन्द्रिय-गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणां च संवृत-विवृता योनिः, गर्भस्य संवृत-विवृतरूपत्वात् । गर्भो ह्यन्तः स्वरूपतो नोपलभ्यते, बहिस्तूदरवृद्धयादिनोपलक्ष्यते इति।"
__स्थानकवासी संप्रदाय में श्रीघासीलालजी महाराज की व्याख्या श्रीमलयगिरिसूरि महाराज की व्याख्या के साथ प्रायः अक्षरशः समान है। अर्थात् यह पदार्थ उनको भी मान्य ही था वैसा सिद्ध होता है।
स्थानांग सूत्र की वृत्ति में “संवृता = सङ्कटा, घटिकालयवत्, विवृता विपरीता, संवृत-विवृता तूभयरूपा' - ऐसी व्याख्या बताई गई है।
तत्त्वार्थसूत्र के स्वोपज्ञभाष्य (सू.२/३३) में श्रीउमास्वाति महाराज कहते हैं कि : “नारकैकेन्द्रिय-देवानां संवृता, गर्भजन्मनां मिश्रा, विवृताऽन्येषामिति ।"
पूज्य हरिभद्रसूरि महाराज की वृत्ति इस प्रकार है : “नारकैकेन्द्रियदेवानां संवृता = प्रच्छन्ना, गर्भजन्मनां तिर्यङ्-मनुष्याणां मिश्रा = संवृत-विवृता, विवृताऽन्येषामित्युक्तविपरीतानां सम्मूर्छनजन्मद्वीन्द्रियादितिर्यङ्मनुष्याणामिति।"
दिगंबर संप्रदाय के तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (२/३२) में “संवृतो दुरुपलक्ष्यः ।... देव-नारकै केन्द्रियाः संवृतयोनयः, विकलेन्द्रिया विवृतयोनयः, मिश्रयोनयो गर्भजाः”- ऐसा बताया गया है।
तत्त्वार्थश्रुतसागरीवृत्ति में भी ऐसी ही बात उपलब्ध होती है। त्रिलोकप्रज्ञप्ति ग्रंथ में भी - "सीदुण्हमिस्सजोणी सच्चित्ताचित्तमिस्स विउडा य । सम्मुच्छिममणुयाणं सचित्तए होंति जोणीओ ॥"
(गा.४/२९५०)