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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य है। अतः यदि आत्मा की मौजूदगी के कारण जीवंत शरीरगत मांस में संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति मान्य न हो तो जीवंत शरीरगत रक्तादि में भी संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति मान्य नहीं बनेगी।
तथा इस सूत्र में तो कलेवररूप उत्पत्तिस्थान को 'विगतजीव' - ऐसे विशेषण से नवाजा गया है।
एक प्रसिद्ध सिद्धांत यह है कि - जिसके अभाव में जिसकी उत्पत्ति मान्य हो उसकी उपस्थिति उसकी उत्पत्ति में प्रतिबंधक बन जाती है। जैसे कि चंद्रकांत मणि के अभाव में अग्नि द्वारा दाह की उत्पत्ति मान्य है। अत: चंद्रकांत मणि की उपस्थिति दाह रूपी कार्य के प्रति प्रतिबंधक साबित होती है। यह निर्विवाद और प्रमाणित तथ्य है। प्रज्ञापना सूत्रकार ने जीव = मनुष्यआत्मा की अनुपस्थिति में = अभाव में संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति मानवशरीर में बताई है। उससे स्पष्टतया फलित होता है कि मनुष्यआत्मा की उपस्थिति संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति को मनुष्य शरीर में होने से रोकती है, उसके प्रति प्रतिबंधक साबित होती है। अर्थात् जीवंत मनुष्य शरीर में संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति नहीं होती।
___ लहू, मल, मूत्र वगैरह चाहे मानवशरीर के बाहर हो या अंदर, यदि सर्वत्र संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति मान्य हो तो मानवशरीर के तत् तत् लहू, मल, मूत्र वगैरह स्थान बताने के पश्चात् 'विगतजीवकलेवरेसु' - यह स्थान लिखने का कोई अर्थ ही नहीं रहता। उसमें भी कलेवर शब्द स्वयं मृतकदेह का सूचक होने पर भी उसके विशेषण के रूप में 'विगतजीव' - ऐसा शब्द दिया गया है। ‘जीव की अनुपस्थिति' - इस हकीक़त पर मानो सूत्रकार अधिक महत्ता दे रहे हैं - ऐसा स्पष्टतया प्रतीत होता है। इससे फलित होता है कि मनुष्यआत्मा की उपस्थिति में शरीर में, रक्तादि में संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति शास्त्रकारों को