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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य आ रही यह परंपरा अनपलपनीय है, सैद्धांतिक है। बोलो कि अनादि
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प्रस्तुत परंपरा अभिनव होने में बाधक
यदि किसीने इस परंपरा को थोड़े दशकों के पहले चालु की हो वैसा मान लें तो अपनी मान्यता को आगममान्य सिद्ध करने के लिए दृष्टांत, तर्क, आगमिक प्रमाण वगैरह का उपन्यास करते हुए ग्रंथ की रचना अवश्य की होती, अथवा वैसा उल्लेख अपनी अन्य कृतिओं में किया ही होता। परंतु वैसा कुछ भी मालूम नहीं होता। साधुजीवन में अनेकविध यतनाओं को स्थान देने वाली परंपरा का यूँ ही निष्प्रयोजन
और गतानुगतिकता से प्रारंभ होने की मान्यता तर्कशून्य एवं अनुचित है। अनैतिहासिक ज्ञात होती है। इस तरह, अब तक की चर्चा के अनुसार, संमूर्छिम मनुष्य की परंपरा
१) चारों जैन संप्रदायों में सदियों से चली आ रही है। २) उसके कोई अभिनव उद्गाता ज्ञात नहीं होते, क्योंकि ३) वैसे कोई आद्य प्रवर्तक की ओर से तथाप्रकार की कोई ग्रंथरचना
ज्ञात नहीं होती या वैसा उल्लेख भी नहीं दिखाई देता। ४) साधुजीवन में संमूर्छिम मनुष्य की विराधना से बचने हेतु
सदियों पुरानी अनेकविध यतनाएँ प्रविष्ट हैं। ५) तथा यह परंपरा शास्त्रअविरुद्ध तो है ही, अपेक्षा से शास्त्रसिद्ध ___ भी है, सुविहित भी है।
इतनी सबल और समर्थ परंपरा स्वयं आगमतुल्य प्रामाणिक साबित होती है एवं स्वतः आगमसिद्ध ही कहलाती है। तथापि प्रश्न उठ खड़ा हुआ है तो इस परंपरा को आगमिक-सैद्धांतिक साबित करने वाले प्रमाण भी देख लें। साथ में श्रीरामलालजी महाराज द्वारा पेश