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संमूर्च्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य 'कहि णं भन्ते' इत्यादि । सुगमम् ।"
अर्थात् प्रवचन विषयक बहुमान से और अपने कथन के प्रति शिष्यों में भी यह बात तो साक्षात् भगवान ने बताई है' - वैसी श्रद्धा उत्पन्न करने के लिए अंगअंतर्गत आलापक को संमूर्छिम मनुष्य की वक्तव्यता में पेश करते हैं।(१)
यहाँ उल्लेखनीय बाबत यह है कि श्रीमलयगिरि महाराज के वचन से और पूर्वापर संदर्भ से प्रस्तुत प्रज्ञापना सूत्र का 'कहि णं' वाला पाठ अंगअंतर्गत है - वैसा तो वृत्ति से ही निश्चित हो चुका है। जब कि वर्तमान काल में उपलब्ध अंगआगमों में ऐसा या ऐसे प्रकार का ओर कोई विस्तृत पाठ ज्ञात नहीं होता। संदेश स्पष्ट है - प्रवचन रूपी सिंधु में से हमारे पास बिंदुमात्र बचा है। सिंधु जितना प्रवचन जो अपने हाथों से चला गया है उसमें प्रभु को मान्य जो भी बाबत है उसके अनुरूप - उसका सूचन करने वाली परंपराएँ आज भी अपने पास मौजूद है। तत् तत् परंपराओं को, वर्तमान आगम में स्पष्ट उल्लेख न मिलने मात्र से, अर्वाचीन और आगमबाह्य का मोहर लगाने का प्रयास योग्य नहीं है। . संमूर्छिम मनुष्य की परंपरा सुविहित एवं प्राचीन
यदि यह परंपरा अर्वाचीन ही हो तो इसके आरंभक कौन ? किन कारणों की बदौलत यह परंपरा उन्होंने प्रचलित की ? एक बात ध्यान बाहर न जाए :- वर्तमान में श्वेतांबर, दिगंबर, स्थानकवासी एवं
(१) जैन विश्वभारती, लाडनू संस्करण में अलग प्रकार से पाठपूर्ति की गई है। परंतु पूर्वापर संदर्भ के साथ एवं समूर्छिम मनुष्यों का भी त्रैविध्य आगम में प्रतिपादित होने से उचित ज्ञात नहीं होती। प्रस्तुत में आवश्यक न होने से इस विषय में विशेष चर्चा को यहाँ अवकाश नहीं है।