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________________ संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य से यह सुसिद्ध है कि सम्मूछिम मनुष्यों की काया से विराधना अवधारणाओं की निर्मिति एवं उनकी अविचारित गतानुगति नहीं हो सकती एवं विराधना ही न होने से तदर्थ प्रायश्चित्त का को आश्चर्य अपना विषय क्यों बनाए ? प्रसंग ही नहीं रहता। अल्पमति से उक्त विषय में आगम वाक्यों एवं पूर्व आप और हम सभी तीर्थंकर देवों के पुनीत पावन सूरिवचनों के आधार पर जो तथ्य अवगत हुए, उन्हें शान्त, आगमोपदेशों के प्रति अनन्य आस्थाशील हैं। आगमिक वचन निर्णायक एवं सहज भावों से उपेत होकर आपके समक्ष प्रस्तुत एवं उनसे अविरुद्ध पूर्वाचार्यप्रणीतग्रन्थवचन हमारे लिए करना महत्त्वपूर्ण समझकर निवेद्य का अक्षराकार प्रस्तुत किया प्रमाणभूत हैं एवं सैद्धान्तिकस्पष्टत्व के अनवबोध से गया है। इस विश्वास के साथ कि आपकी प्रियागमता एवं संशयकोलाहलाकुलचित्तालय में सत्समाधान को प्रविष्टि देकर सत्यांगीकारवृत्तिकता आगमों के मौलिक आशय को, चाहे वह शान्तनीरवसमाधिस्थता को सुप्रसारित करने वाले हैं। इस कुछेक दशाब्दियों या शताब्दियों की प्रचलित अवधारणा से सुदीर्घ शासन परम्परा में ज्ञेयाज्ञेयहेतुवशात् क्वचित् कदाचित् भिन्न भी क्यों न हो, सुविचारपूर्वक अवश्य आत्मसात् करेगी। आगमाननुमोदित वैयक्तिकविचारसंपुष्ट सैद्धान्तिक परिशिष्ट श्री निशीथ सूत्र, तृतीय उद्देशक के अन्तिम सूत्र के मूलपाठ सम्बन्धी स्पष्टीकरण :यहाँ लेख में श्री निशीथ सूत्र के तृतीय उद्देशक के अंतिम सूत्र श्री निशीथ सूत्र के कतिपय मुद्रित संस्करणों में तृतीय का जो मूलपाठ उद्धृत किया है, वह प्राचीन हस्तलिखित उद्देशक के अन्तिम सूत्र का जो मूलपाठ दिया गया है, वह प्रतियों तथा आगम प्रभाकर मुनि श्री पुण्यविजय जी म. सा. अत्यन्त ही विचारणीय है । वह मूलपाठ इस प्रकार है :द्वारा तैयार की गई प्रेसकॉपी के आधार से लिया है, वह पाठ इस प्रकार है :"जे भिक्खू राओ वा वियाले वा उच्चारपासवणेणं "जेभिक्खू सपायंसि वा परपायसि वा दिया वाराओवा उब्बाहिज्जमाणे सपादं गहाय परपायं वा जाइत्ता वियाले वा उच्चार-पासवणेणं उब्बाहिज्जमाणे सपायं उच्चार-पासवणं करेति, जो तं अणुग्गते सूरिए एडेति गहाय, परपायं वा जाइत्ता उच्चार-पासवणं परिद्ववेत्ता एडंतं वा साइजइ। तं सेवमाणे आवजति मासियं अणुग्गए सूरिए एडेइ, एडंतं वा साइज्जइ । तं सेवमाणे परिहारट्ठाणं उग्घाइमं।" आवजइ मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाइयं।" श्री निशीथ सूत्र की जिन ताड़पत्रीय प्रतियों के आधार से पाठ लिया है, उनका विवरण इस प्रकार है क्रमांक भण्डारकानाम क्रमांक | ताड़पत्रीय/कागज 1. पाटण-संघवीपाड़ा का भंडार पातासंपा । ताड़पत्रीय 2. | पूना-भांडारकर ओरिएन्टल रिसर्च इन्स्टिट्यूट भाता-18 ताड़पत्रीय 3. पाटण-हेमचंद्राचार्य जैन ज्ञान भंडार (संघ नो भंडार) पाताहेसं-13 ताड़पत्रीय बहुत से मुद्रित संस्करणों में सूत्र का प्रारंभ इस प्रकार किया गया है : 'जे भिक्खू सपायंसि वा परपायसि वा दिया वा राओ वा वियाले वा....' यहाँ जो पाठ ताड़पत्रीय प्रतियों व श्री पुण्यविजय जी कृत प्रेसकॉपी से लिया है, वह इस प्रकार है : _ 'जे भिक्खू राओ वा वियाले वा .....' २४. परिशिष्ट की निरर्थकता के लिए देखिए पृ.४७ से ५३।
SR No.022666
Book TitleSamurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijaysuri, Jaysundarsuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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