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संमूर्च्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य उच्चार (विष्ठा) के ऊपर उच्चार व्युत्सर्जित करने में प्रायश्चित्त बृहत्कल्पभाष्य गा.४५५ के उत्तरार्ध में इन शब्दों में बताया है 'घर - वावि - वच्च-गोवय-ठिय-मल्लगछड्डुणे लहुगा ।' श्रीबृहत्कल्पसूत्रभाष्य की चूर्णि प्रस्तुत में इस प्रकार है - ( चूर्णि के प्रकाशन अनुसार उक्त गाथा का क्रमांक ४६० है | )
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"कुवे वोसिरति, वावीए वोसिरति वा, घरे वोसिरति, वच्चघरे वच्चोवरिं वा, गोप्पदे उट्ठिततो वा वोसिरति, मल्लए वोसिरित्ता छडुंति । एतेसु सव्वेसु चउलहुगा ।"
श्री क्षेमकीर्तिसूरि महाराज द्वारा विहित वृत्ति इस प्रकार है : “तथा यदि गृहे संज्ञां व्युत्सृजति, वाप्याम्, वर्चोगृहे वर्चस उपरि वा, गोष्पदे वा, ऊद्धर्वस्थितो वा तथा मल्लके व्युत्सृज्य यदि परिष्ठापयति तदा सर्वेष्वेतेषु स्थानेषु प्रायश्चित्तं प्रत्येकं चत्वारो लघवः । (बृ. क. भा. ४५५ वृ.)
यहाँ देखिए कि अत्यंत स्पष्ट उल्लेख कर के वर्चस् (विष्ठा) के वर्चोगृह (= शौचालय) में भी ऊपर उच्चारादि परठने का प्रायश्चित्त दर्शाया गया है, जो अंत में तो संमूर्च्छिम मनुष्य की विराधनाप्रत्ययिक प्रायश्चित्त में ही फलित होता है । वहाँ अन्य त्रस जीवों की विराधना भाज्य = कादाचित्क + दृष्टिप्रतिलेखन आदि से परिहार्य होने के कारण, तथा त्रससंसक्त भूमि पर परठने का प्रायश्चित्त अलग बताने के कारण इस प्रायश्चित्त को संमूर्च्छिम मनुष्य की विराधना प्रत्ययिक गिनने में बाध नहीं है, प्रत्युत औचित्य है । सामान्य से तत् तत् जीव की विराधना में जो प्रायश्चित्त आते हैं वे निशीथभाष्य गाथा ११७ में दर्शाए हैं ।
वह गाथा चूर्णिसहित इस प्रकार है । निशीथसूत्रभाष्य के आधार पर प्रायश्चित्त प्रतिपादन
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"छक्काय चउसु लहुगा, परित्त लहुगा य गुरुगा साधारे । संघट्टण परितावण लहु-गुरु अतिवायणे मूलं ।। ११७ ।।
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