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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
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(३) तीसरी बात वे कहते हैं कि, आचरणा से क्षेत्रदेवतादि का कायोत्सर्ग होता है । इससे यह फलित होता हैं कि, विचारामृत संग्रहमें बताए अनुसार पू.आ.भ.श्री के कालधर्म के ५० वर्ष पहले पूर्वधर महर्षियों का काल था, तब भी प्रतिक्रमणमें क्षेत्रदेवतादि का कायोत्सर्ग किया जाता होगा और अविच्छिन्न सुविहित परम्परा को ही आचरणा कहा जाता है। इसलिए पू.आ.भ.श्री के शासनकाल से पूर्व भी अविच्छिन्न रुप से प्रतिक्रमणमें क्षेत्रदेवतादि का कायोत्सर्ग करने की आचरणा चलती होगी। इस प्रकार पंचवस्तु एवं विचारामृत संग्रह दोनो ग्रंथकी बात संगत हो जाती है। • अब पंचवस्तु ग्रंथ का वह पाठ देखें। पम्हट्ठमेरसारणा, विणओ उ ण फेडिओ हवइ एवं । आयरणा सुअदेवयमाईणं होइ उस्ह्याग्गो ॥४९१॥ वृत्तिः- तत्र हि विस्मृतमर्यादास्मरणं भवति, विनयश्च न फेटितो -नातीतो 'भवति एवं', उपकार्यासेवनेन, एतावत् प्रतिक्रमणं, आचरणया श्रुतदेवतादीनां भवति कायोत्सर्गः आदिशब्दात् क्षेत्रभवनदेवतापरिग्रह इति गाथार्थः ॥४९१॥
भावार्थ : प्रतिक्रमण करने के बाद गुरु के पास बैठने का कारण बताता है। शायद कोई सामाचारी भूल से रह गई हो तो आचार्य भगवंत कहें और उपकारी गुरु के पैर दबाकर सेवा करने से विनय का पालन भी होता है। इसलिए प्रतिक्रमण करने के बाद सभी साधु कुछ देर गुरु के पास बैठे।
इतना प्रतिक्रमण है इतनी प्रतिक्रमण की विधि है। श्रुतदेवता, क्षेत्रदेवता का कायोत्सर्ग आचरणा से होता है।
पठा
उपरोक्त पाठ में स्पष्ट कहा गया है कि, श्रुतदेवता-क्षेत्रदेवता एवं भवनदेवता का कायोत्सर्ग आचरणा से होता है।