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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी
उत्तर : उनकी प्रमुख मान्यताएं निम्नानुसार हैं। (१) त्रिस्तुतिक मतवाले सम्यग्दृष्टि देव-देवी के कायोत्सर्ग करने तथा उनकी
स्तुति बोलने से मना करते हैं। (२) वंदित्ता सूत्र की ४७ वीं गाथा के उत्तरार्धमें ‘सम्मदिट्ठी देवा' पद के स्थान
पर 'सम्मत्तस्स य सुद्धि' पद बोलते हैं। (३) देववंदन तथा प्रतिक्रमणमें चौथी थोय का निषेध करते हैं। किन्तु दीक्षा
आदि में देववंदन की जो क्रिया आती है, उसमें सम्यग्दृष्टि देव-देवी के
कायोत्सर्ग व उनकी स्तुति करते हैं। (४) श्रुतदेवता एवं क्षेत्रदेवता का कायोत्सर्ग नहीं करते और उनकी स्तुति भी
नहीं बोलते हैं। (५) प्रतिक्रमण के अंतमें शांति नहीं बोलते। (६) सुयदेवया०' गाथा के श्रुतदेवता पद का अर्थ जिनवाणी बताते हैं।
उनकी ये सभी मान्यताएं शास्त्रविरोधी हैं तथा सुविहित परम्परा की विरोधी हैं, इसलिए असत्य हैं।
प्रश्न : त्रिस्तुतिक मतवाले उनकी मान्यता के लिए किन शास्त्रों को आधार बताते हैं ? उनकी मान्यता के लिए शास्त्रपाठों का उनके द्वारा किया गया अर्थघटन सच्चा है या असत्य है?
उत्तर : नए शुरु हुए मत कोई न कोई शास्त्रपाठ देने के प्रयत्न तो करते ही हैं। परन्तु उनमें कोई सार नहीं होता। क्योंकि, वे मत या तो अपनी मान्यता की पुष्टि के लिए शास्त्रपाठ के अनुकूल अंशों को पकडते हैं अथवा शास्त्रपाठों का अर्थघटन ही विपरीत करते हैं। अपनी किसी मान्यता में महापुरुष की बातों को संदर्भरहित अपने पक्ष में खींचने का हीन प्रयास भी करते हैं। परन्तु वह मान्यता (मत) शास्त्रविरोधी होने के कारण उसे शास्त्रपाठ अथवा सुविहित महापुरुषों की परम्परा का बल प्राप्त नहीं होता।