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________________ त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी उज्जि १० चत्ता ११ वैयावच्च १२ अहिगारपढमपया ॥४॥" इति चैत्यवन्दनभाष्यगाथोक्तैर्वादशभिरधिकारैः पूर्वोक्तविधिना देवान् वन्दित्वा चतुरादिक्षमाश्रमणैः श्रीगुरुन्वन्दते। भावार्थ : प्रतिक्रमण की विधि 'प्रतिक्रमण हेतु गर्भ' आदि ग्रंथोंमें इस प्रकार कही गई है....... __ यहां आवश्यक के प्रारम्भ में चैत्यवंदना का अभिकार कहा गया है। इस प्रकार आगम वचन के प्रमाण से तथा युक्ति से पहले 'इर्यावही' पडिक्कमवी । 'इर्यावही'को पडिक्कमते समय मन के उपयोगपूर्वक जहां खड़ा रहना है, उस भूमि को तीन बार प्रमार्जित करना चाहिए। इस प्रकार 'इर्यावही' पडिक्कम के साधु एवं सामायिक करनेवाले श्रावक प्रारम्भ में श्रीदेव-गुरु को वंदन करते हैं। सभी अनुष्ठान श्रीदेव-गुरुके वंदनविनय-सन्मानादि भक्तिपूर्वकही सफल होता है और इसीलिए कहा गया हैकि, 'विनय युक्त विद्या आलोक तथा परलोकमें (अच्छा) फल देती है। जैसे पानी के बिना अन्न नही उपजता है, वैसे ही विनयहीन को विद्या नहीं फलती। श्रीजिनेश्वरों की भक्ति से पूर्वसंचित कर्म नष्ट होते हैं। पू.आचार्य भगवंत को नमस्कार करने से विद्या एवं मंत्र सिद्ध होते हैं। ॥१-२॥' (प्रतिक्रमण के प्रारम्भमें बारह अधिकार सहित चैत्यवंदना करनी है। इसमें प्रत्येक अधिकार के) उद्देश्य बताए गए हैं। _ 'नमुत्थुणं में प्रथम अधिकार भावजिनका है । (१) 'जे अ अइया' सूत्रमें द्रव्य जिन को नमस्कार होता है। (यह दूसरा अधिकार है।) (२) तीसरा अधिकार अरिहंत चेइयाणं' सूत्र द्वारा एक चैत्य में निहित स्थापना जिनको नमस्कार होता है (३) चौथे अधिकार 'लोगस्स' सूत्रमें नाम जिनकी वंदना होती है। (४) पांचवें अधिकार 'सव्वलोओ सूत्र में तीन लोकमें निहित स्थापना
SR No.022665
Book TitleTristutik Mat Samiksha Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherNareshbhai Navsariwale
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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