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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी हो, तो भी उसे वास्तविक स्वरुप की आचरणा नहीं कहा जा सकता।
(५) संविग्नगीतार्थादिगुणभाक् प्रमाणस्थ पुरुष द्वारा अशठता से प्रवर्तित की हो, निरवद्य हो तथा तत्कालीन तथाविध गीतार्थो से निषिद्ध न की गई हो, ऐसी आचरणा भी यदि तत्कालीन तथाविध बहुश्रुतों द्वारा बहुमत न की गई हो, तो भी उसे वास्तविक स्वरुप की आचरणा नहीं कहा जा सकता। __(६) जिस परम्परा का मूल सातिशायी पुरुष न हो, उसे वस्तुतः परम्परागत नहीं कहा जा सकता।
(७) श्रुतव्यवहारी कोई भी आचरण श्रुत का उल्लंघन करके कर ही नहीं सकता।
(८) जिसके लिए श्रुत की प्राप्ति हो, उसके लिए जीत की प्रधानता हो ही नहीं सकती।
(९) जो आचरणा आगम से विरुद्ध हो, इसलिए सावद्य और अशुद्धिकर हो, उस आचरणा का स्वीकार हो ही नहीं सकता, किन्तु ऐसी आचरणा का (मन-वचन-काया से करने-कराने एवं अनुमोदना करने पूर्वक) त्रिविध त्याग करना ही चाहिए।
उपरोक्त मुद्दों को ध्यान में लेने पर स्पष्टरुप से समझा जा सकता है कि, 'चतुर्थ स्तुति' का मत शास्त्र एवं शास्त्र मान्य सुविहित परम्परासे विशुद्ध है और 'त्रिस्तुतिक' मत शास्त्र तथा शास्त्र मान्य सुविहित परम्परा से विरुद्ध है और इसलिए उन्मार्ग स्वरुप है।
इस बात पर विस्तार से विचार करें।
(१) देव-देवी के कायोत्सर्ग करने तथा उनकी स्तुति कहने की आचरणा संविग्न गीतार्थादिगुणवान् प्रमाणस्थ पुरुष द्वारा प्रवर्तित है। जबकि त्रिस्तुतिक मत १२५०में मिथ्याग्रहसे प्रवर्तित हुआ है।
(२) चतुर्थस्तुतिकी आचरणा संविग्न गीतार्थादिगुणवाले श्रीहरिभद्रसूरिजी, श्रीअभयदेवसूरिजी, श्रीधर्मघोषसूरिजी, श्रीकुलमंडनसूरिजी,