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________________ त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी १११ “यदि जीतमाद्रियते तदा किं न प्रमाणीस्यात् ? सर्वैरपि स्वपरम्परागतजीताश्रयणादित्यत आहजंजीअंसावज्जं,ण तेणजीएण होइ व्यवहारो जंजीअमसावज्जं, तेण उजीएण ववहारो॥४७॥" तथा"जंजीअमसोहिकरं, पासत्थपमत्तसंजयाईणं। जइ वि महाणा इन्नं, ण तेण जीएण ववहारो॥५२॥ जंजीअंसोहिकरं, संवेगपरायणेण दंतेणं। इक्केण वि आइन्नं, तेण उजीएण ववहारो॥५३॥" (७) प्रवचन परीक्षा नामक ग्रंथ में महोपाध्याय श्रीधर्मसागरजी महाराज कहते हैं कि, ___(i) जो आचार्य श्रीजिनमत को यथावस्थित स्वरुप में प्रकाशमान करते हैं वे ही आचार्य जिन सदृश हैं। इसलिए विपरीत प्रकार के आचार्य तो, पाप के पुंज जैसे होने से, सम्यग्दृष्टि जनो के लिए दूर से ही त्यागने योग्य हैं । सूरि आचार्य द्वारा प्रवर्तित यही प्रमाण है, कि जो मायारहित सम्यक् पर्यालोचना करके विहित किया हो, वह भी प्रवचनका-शास्त्रका उपघात करनेवाला नहीं होना चाहिए और तत्कालवर्ती बहुश्रुतों से प्रतिषेधित नहीं होना चाहिए। इतना ही नहीं, किन्तु तत्कालवर्ती सभी गीतार्थोंको पर्युषणा की चतुर्थी की भांति सम्मत होना चाहिए। (ii) जो कुछ आचार्य प्रवर्तित हो वह प्रमाण माना जाए, यह स्वीकारने से सभी प्रवचन के उच्छेद की आपत्ति आ लगेगी। (iii) श्रुतव्यवहार में श्रुतव्यवहार को लांघकर बरतनेवाला दर्शन के लिए भी योग्य नहीं । जो पुरुष जिस व्यवहारवाला हो, उस व्यवहार को पुरस्कृत करके चलनेवाला ही श्री जिनाज्ञा का आराधक होता है, किन्तु अन्य प्रकार (से श्री जिनाज्ञा का आराधक नहीं होता।)
SR No.022665
Book TitleTristutik Mat Samiksha Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherNareshbhai Navsariwale
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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