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________________ 192 तिलकमञ्जरी में वक्रोक्ति अनेन (तारकेन) हि सुखेन लंघयिष्यत्यलघुविस्तारमपि भगवनतमवारपारं पारावारं कुमारः। साधयिष्यति च यत्नमन्तरेणापि कृच्छ्रसाध्यानि प्रयोजनानि प्रायेण। - पृ. 130 दुष्ट सामन्तों के दमन हेतु निकले युवराज समरकेतु की समुद्र यात्रा में 'तारक' उनका नाविक है। 'तारक' रूढ़िवैचित्र्यवक्रता का सुन्दर उदाहरण है। यहाँ 'तारक' एक व्यक्तिवाचक संज्ञा मात्र नहीं है। तारक का अर्थ है - आगे ले जाने वाला, पार लगाने वाला। समुद्र यात्रा में मल्लाह अथवा कर्णधार का अत्यधिक महत्त्व होता है। योग्य कर्णधार अपने स्वामी को उसके गन्तव्य तक पहुँचाने में सहायक सिद्ध होता है। तारक युवराज समरकेतु के जलयान का कर्णधार है। तारक पद से इस अर्थ का बोध होता है कि वह जलयान संचालन विद्या में पूर्णतः दक्ष है तथा इसकी सहायता से समरकेतु अत्यन्त दुर्गम व विस्तृत समुद्र को अनायास ही पार करने में सक्षम होंगे। पयार्यवक्रता : पर्याय पर आश्रित वक्रता पर्यायवक्रता कहलाती है। पर्याय से अभिप्राय है समानार्थक संज्ञा शब्द। उसके कुशल प्रयोग से उत्पन्न चमत्कार का नाम है पर्यायवक्रता।" कुन्तक के अनुसार जो (1) अभिधेय (वाच्यार्थ) का अत्यन्त अन्तरङ्ग (चमत्कार को प्रकट करने में सर्वाधिक उपयुक्त) है, (2) जो अभिधेय के अतिशय का षोषक है, (3) स्वयं ही अथवा अपने विशेषण के द्वारा जो रमणीय दूसरी शोभा के स्पर्श से उसको अलंकृत करने में समर्थ है, (4) अपनी कांति (सुकुमारता) के प्रकर्ष से रमणीय है। (5) असम्भाव्य अर्थ का पात्र होने के अभिप्राय वाला कहा जाता है तथा (6) अलङ्कारों के कारण उत्पन्न दूसरी शोभा से अथवा अलङ्कारों की दूसरी शोभा को उत्पन्न करने से मनोहर रचना वाला पर्याय है उसके प्रयोग से जहाँ विचित्रता होती है वह परमोत्कृष्ट पर्यायवक्रता होती है। इस प्रकार यह पर्याय वक्रता छः प्रकार की होती है। एषः समरकेतुर्गुजै समधिकं समं चात्मबन्धुवर्गे प्रधानपुरुषमपश्यता मया तवैव सहचरः परिकल्पितः। - पृ. 102 54. 55. भारतीय काव्यशास्त्र की भूमिका, पृ. 145 अभिधेयान्ततमस्तस्यतिशयपोषक:। रम्यच्छायान्तरस्पर्शात्तदलंकर्तुमीश्वरः।। स्वयं विशेषणेनापि स्वच्छायोत्कर्षपेशलः। असंभाव्यार्थपात्रत्वगर्भ यश्चाभिधीयते।। अलंकारोपसंस्कारमनोहारिनिबन्धनः। पर्यायस्तेन वैचित्र्य परा पर्यायवक्रता।। व. जी.,2/10, 11,12
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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