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वक्रोक्ति
वक्रोक्ति शब्द दो शब्दों के संयोग से बना है- वक्र तथा उक्ति । इसका सामान्य अर्थ है - वक्रतापूर्ण उक्ति अथवा टेढ़ी उक्ति (कथन) अर्थात् उक्ति को सामान्य ढंग से न कहकर वक्रतापूर्ण या वैचित्र्य से युक्त करके कहना । लोक व्यवहार की सामान्य उक्ति से भिन्न प्रकार की विलक्षण उक्ति ही वक्रोक्ति कहलाती है। वक्रोक्ति में श्रोता, वक्ता के कथन की वक्रता के अनुसार ही अन्यार्थ की कल्पना करता है। कृष्णदेव झारी के अनुसार- साहित्य तथा लोक व्यवहार में, वार्तालाप में, वक्रोक्ति शब्द का प्रयोग वाक् छल, क्रीड़ालाप तथा परिहास के रूप में होता रहा है । '
साधारण
तिलकमञ्जरी में वक्रोक्ति
आचार्य कुन्तक ने वक्रोक्ति को काव्य जीवित (आत्मा) के रूप में प्रतिष्ठित किया है। परन्तु संस्कृत काव्य शास्त्र में इसके बीज पहले से ही विद्यमान थे। कुन्तक के पूर्ववर्ती आचार्यों ने अनेक रूपों में इसकी विवेचना की है । कुन्तक के परवर्ती आचार्यों ने भी भिन्न-भिन्न प्रकार से वक्रोक्ति का वर्णन किया है। अतः यहाँ पर कुन्तक के पूर्ववर्ती व परवर्ती आचार्यों के वक्रोक्ति चिन्तन का संक्षिप्त वर्णन वाञ्छनीय है।
पूर्ववर्ती आचार्यों का वक्रोक्ति चिन्तन
भामह अलङ्कारवादी आचार्य हैं। इन्होंने अलङ्कार को काव्य का सर्वस्व माना है तथा वक्रोक्ति को अलङ्कार का प्राण । भामह का मत है कि वक्रोक्ति के बिना काव्य में सौन्दर्य की निष्पत्ति नहीं हो सकती । भामह ने अतिशयोक्ति के स्वरूप का वर्णन करते हुए वक्रोक्ति की विवेचना की है। इनके अनुसार अतिशयोक्ति ही वक्रोक्ति है। इसी के द्वारा अर्थ की विशिष्ट रूप से भावना की जाती है । कवि को इसके लिए यत्न करना चाहिए -
1.
2.
सैषा सर्वत्र वक्रोक्तिरनयार्थो विभाव्यते ।
यत्नोऽस्यां कविना कार्यः कोऽलङ्कारोऽनया विना ॥
काव्य का सम्पूर्ण सौन्दर्य वक्रोक्ति पर आधारित है। वक्रोक्ति से तात्पर्य शब्द
भारतीय काव्यशास्त्र के सिद्धांत, पृ. 129
का. ल., 2/85