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________________ मालिन - नहीं, मुझे कभी ऐसा मौका नहीं मिला। राजा - देख, सत्य कहना । यदि झूठ बोलेगी तो तुझे काफी दण्ड दिया जायगा। मालिन - महाराजाधिराज ! मैं सत्य ही बोल रही हूँ। मैंने कभी भी इन्हें जिनालय में नहीं देखा और न कभी मैंने इन्हें पूजा के लिए फूल ही दिये हैं। राजा ने राजकुमार की ओर देखकर कहा - "क्यों क्या इस मालिन का कहना सत्य है?" राजकुमार - “पूज्य महाराज ! यह सर्वथा असत्य बोल रही है । परन्तु स्त्री| जाति को अधिक दण्ड देना ठीक नहीं है।" राजा - अरे दुष्टा ! तूं न्यायासन के सामने भी ऐसी झूठी बातें कहती है ! अब मैं तुझे कठोर दण्ड दूंगा । जो सच बात हो वह कह दे । महाराजा को क्रुद्ध देखकर, वह मालिन काँप उठी और नीति देवी के प्रताप से डरती हुई कहने लगी - "अन्नदाता ! मुझे क्षमा करो। मैं आपके आगे सच-सच अर्ज करती हूँ। एक समय मैं आपके बगीचे में फूल तोड़ने गयी थी । वहाँ कुबेरदत्त नामक कोई एक व्यापारी मेरे पास आया। उसने स्वर्ण का हार देकर मुझे ललचाया और मैंने पुष्प की नलिका में तम्बोली नाग रखकर इन राजकुमार को जिनालय में दिया था । मैंने लोभ के वशीभूत हो, ऐसा नीच कृत्य किया है। अब मेरा अपराध क्षमा करें । भविष्य में| अब ऐसा अपराध मुझ से कदापि न होगा।" मालिन के मुँह से ऐसी बात सुनकर राजा को बड़ा ही क्रोध आया । उसने अपने सेवकों को आज्ञा दी कि “इस पापिनी को मार डालो । मेरे नीति पूर्ण राज्य में ऐसी दुष्टा स्त्रियों की आवश्यकता नहीं है। ऐसी स्त्रियों के रहने से प्रजा की रीति और उनकी नीति में विघ्न उत्पन्न होते है। साथ ही इसे इस दुष्ट कार्य की प्रेरणा करने वाले उस पापी कुबेरदत्त को भी ढूँढ लाओ । उसे भी प्राणदण्ड की सजा दो । राजकुमार को समुद्र में धकेलने वाले और विषप्रयोग करवाकर मालिन से ऐसा कुकृत्य करवानेवाले - नर पिशाच को इस दुनिया से उठा देना ही ठीक है।" राजा के मुँह से ऐसी भयङ्कर दण्डाज्ञा सुनकर दयालु उत्तमकुमार ने 83
SR No.022663
Book TitleUttamkumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Jain, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages116
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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