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________________ में से मेरे धार्मिक विचारों ने मेरा उद्धार किया है । रे अनाचारी, चंचल मन ! पहिले तो तुझे यह विचार करना चाहिए कि तेरा ऐसा भाग्य ही कहाँ है जो तेरे प्राण पति का पुनः मिलाप हो । यदि तेरा सद् भाग्य ही होता तो उस वीरनर को समुद्र में क्यों धकेला जाता । मिला हुआ चिंतामणि रत्न फिर क्यों खो जाता ?" इस तरह अपने मन को उपालम्भ देकर मदालसा फिर निर्मोही तथा राग शून्य | हो नवकार मंत्र जपने लगी । उसकी रागी मन में फिर धर्म भावना जागरित हो गयी। सम्यक्त्व धर्म की शुद्ध छाया उसकी मनोवृत्ति पर छा गयी । मदालसा की ऐसी शुद्ध वृत्ति देख कर वह बुढ़िया भी उसी के विचारों का अनुमोदन करने लगी। इधर नरवीर उत्तमकुमार अपनी नवीन प्रिया तिलोत्तमा के साथ रहते हुए, | नवीन आनन्द का अनुभव कर रहा था। जब मदालसा की वह वृद्धा दासी राजकुमार के महलों में आकर इस प्रकार चुपचाप तुरन्त ही लौट गयी थी, तब चतुर कुमार ने अपनी प्रिया से पूछा - "प्रिये ! यह बुढ़िया यहाँ आकर पुनः तत्काल बिना कुछ कहे सुने वापस लौट गयी, वह कौन थी ?" पति के इस प्रश्न को सुनकर तिलोत्तमा ने जवाब दिया - "जीवनाधार ! मदालसा नामक एक विदेशी स्त्री यहाँ आयी है, वह रूप और द्रव्य में भर पूर है। उसे सब तरह से योग्य समझकर मेरे पिता ने अपने यहाँ आश्रय दिया है। वह मेरे अंत:पुर के एक भाग में रहती है। यह वृद्धा स्त्री मेरी प्यारी सखी मदालसा की दासी है।" राजकुमारी के मुँह से "मदालसा" नाम सुनते ही राजकुमार आनन्द और आश्चर्य के समुद्र में गोते खाने लगा । “वह मेरी प्यारी मदालसा ही होगी" ऐसा निश्चय होते ही उसके मनोमंदिर में उसके प्रेम की पवित्र मूर्ति फिर अङ्कित हो गयी । मदालसा का पूर्व प्रेम उसके हृदय में पूर्ण रूपसे जागरित हो उठा । राजकुमार मन-ही-मन सोचने लगा - "अरे कर्म ! तेरी कैसी विचित्र गति है ? क्या मेरी प्राण प्रिया महासागर के प्रबल प्रवाह में से बचकर यहाँ आ सकती हैं ? क्या मेरे जीवन की वह प्यारी प्रिया पुनः मुझे मिल सकेगी ? यह सर्वथा असम्भव है। परन्तु कर्म की सत्ता क्या नहीं कर सकती ? जगत के जीवन मार्ग में कर्म का 58
SR No.022663
Book TitleUttamkumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Jain, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages116
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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