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________________ नगर देखने की इच्छा से घूमने लगा । वह घूमता-1 - फिरता इस नये बनते हुए महल के पास आ पहुँचा ? वहाँ उसकी राज्य के मुख्य मिस्त्री से भेंट हुई, इत्यादि वृत्तान्त पाठकों को अच्छी तरह मालूम है । उत्तमकुमार घर से चले जाने पर बन्दरगाह पर रहनेवाले घीवरों ने उसकी बड़ी ढूँढ खोज की, परन्तु कहीं भी वह उन्हें दिखाई नहीं पड़ा । अन्त में वे लोग पछताकर कहने लगे - " ऐसा उत्तम पुरुष हमें अब कहाँ मिलेगा ? वास्तव में हमलोगों ने एक अमूल्य रत्न खो दिया है ।" यह कहते हुए वे सब दुःख और पश्चात्ताप करने लगे । इधर उत्तमकुमार की देख-रेख में उस राजमहल का काम अच्छी तरह चलने लगा । शिल्प शास्त्र वर्णित गृह निर्माण नियम के अनुसार महल में अलग अलग भाग तैयार कराये गये । प्रत्येक भाग में अच्छी से अच्छी कारीगरी की गयी थी। थोड़े ही दिनो में यह मनोहर महल बनकर तैयार हो गया । यह महल सात मँजिला बनाया गया था । उसमें सभा भवन, शयनागार, विद्यामंदिर, क्रीड़ास्थान, मंत्रणागृह, शान्तिसदन, और शृगार - मन्दिर आदि अलग-अलग भाग, विशाल, रमणीय और सुन्दरता से बनाये गये थे । हरेक भाग में कोरे हुए खंभे और उनपर रंग वगैरह से सुशोभित पुतलियाँ लगायी गयी थीं । उत्तमकुमार ऐसी शिल्प विद्या में अत्यन्त प्रवीण था परन्तु उसमें अहंकार नहीं था । साथ ही वह अपने गुण को छिपाकर रखने वाला नहीं था । वह स्वयम् राजमिस्त्री को तथा दूसरे कारीगरों को अपनी गुप्त कलाएँ बता देता और उनके साथ शुद्ध मन से व्यवहार करता था। आज कल कई गुणीजन अपने गुणों को गुप्त रखते हैं, और मरते दम तक किसी को भी गुप्त कलाओं का रहस्य नहीं बताते - साथ ही अपने गुणका घमण्ड करते हुए दूसरे को अपने से तुच्छ भी समझते हैं । कई लोग तो कपट से, दूसरे को सिखाने की आशा भरोसा देकर उससे अपनी सेवाएँ कराते रहते हैं । ऐसे गुणी लोग बिलकुल अधम गिने जाते हैं तथा जगत उनकी निन्दा करता है । 46
SR No.022663
Book TitleUttamkumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Jain, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages116
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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