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- “महाराज ! आपने मेरे प्रति इतनी कृपा की, इसके लिए मैं आपका चिर आभारी रहूँगा।मुझ जैसे अज्ञात कुल पुरुष को आप मेदपाट देश का सुविशाल राज्य देने के लिए तैयार हो गये, इसको मैं अपना गौरव समझता हूँ, किन्तु मुझे आशा है कि आप मुझे क्षमा करते हुए मेरी विनंती पर ध्यान देंगे।मैं वाराणसी नगरी का राजकुमार हूँ; भाग्य परीक्षा के लिए तथा विविधकौतुक देखने की इच्छा से मैं देशाटन के लिए घूम रहा हूँ । आर्यभूमि की महत्ता तथा विद्वानों की बुद्धि निपुणता देखने की मुझे | अत्यन्त उत्कंठा है। इसलिए मुझे इस समय तो आप जाने की आज्ञा दें।मेरी उत्कंठा पूर्ण होने पर मैं आपकी राजधानी में फिर जल्दी ही लौट आऊँगा। मेरे वचन पर विश्वास करके मुझे आज्ञा प्रदान कीजिए।
उत्तमकुमार की यह प्रार्थना सुनकर मेवाड़-पति प्रसन्न हो, पुनः आने का वचन ले, उसे जाने की आज्ञा दे दी और हृदय से लगाकर विदा किया । राजा महीसेन की आज्ञा लेकर, विनय पूर्वक प्रणाम कर उत्तमकुमार आगे बढ़ा और मेवाड़-पति अपने सरदारों के साथ अपनी राजधानी चित्रकूट को लौट गया।
पाँचवाँ परिच्छेद
- कृतघ्नी को धिक्कार समुद्र तट पर एक अच्छा शहर बसा हुआ है । झुण्ड-के-झुण्ड लोग बंदरगाह पर आते और जाते हैं । मदमत्त मजदूर काम करते जाते हैं और साथ ही श्रवण सुखद मधुर गीत भी गा रहे हैं। माल से भरी हुई बैल गाड़ियों की कतार शहर की तरफ से आ रही है। जल मार्ग के यात्री तैयार होकर समुद्र के किनारे खड़े हैं। शहर के एक तरफ नर्मदा नदी बड़े वेग से बह रही है। यह महानदी जैन सती नर्मदासुन्दरी के इतिहास की याद दिलाती है। आर्य प्रजा तीर्थ रूप में इसका बड़ा मान करती है।
इस समय राजपुत्र उत्तमकुमार भी देश-देशान्तर घूमता-फिरता वहाँ आ पहूँचा । मार्ग में उसे एक नागरिक मिला जिससे उसने पूछा - "भाई ! यह कौन
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