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श्रीमद्वाग्भटविरचितं नेमिनिर्वाणम् : एक अध्ययन
सम्यग्ज्ञान :
नयचक्र' एवं द्रव्यसंग्रह' के अनुसार आत्मा एवं अन्य वस्तुओं के स्वरूप को शन की न्यूनाधिकता से हीन तथा सन्देह एवं विपरीतता से रहित ज्यों का त्यों जानना सम्यग्ज्ञान है I
कहलाता
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“विरुद्धानेककोटिस्पर्शिज्ञानं संशयः” अर्थात् “ऐसा है कि ऐसा है" इस प्रकार परस्पर विरुद्धतापूर्वक दो प्रकार रूप ज्ञान को संशय कहते हैं। जैसे आत्मा अपना कर्ता है या पर का । यह सीप है या चांदी, रस्सी है या सर्प, ठूंठ है या पुरुष आदि ।
“विपरीतकोटिनिश्चयो विपर्ययः” अर्थात् वस्तु-स्वरूप से विरुद्धतापूर्वक ऐसा ही है” इस प्रकार का एकरूप ज्ञान विपर्यय है जैसे शरीर को आत्मा जानना ।
जैनाचार्यों ने इसके पाँच भेद बताये हैं - (१) मतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मन:पर्यय और (५) केवलज्ञान । प्रथम दो ज्ञानों को परोक्ष तथा बाद के तीन ज्ञानों को प्रत्यक्ष ज्ञान कहा गया है । पश्चात्वर्ती दार्शनिकों ने इसे परोक्ष के सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की कोटि में रखकर अन्य भारतीय दार्शनिकों के समान इन्द्रिय प्रत्यक्ष भी स्वीकार कर लिया है। मतिज्ञान :
पाँचों इन्द्रियों और मन के द्वारा जो ज्ञान होता है, उसे मतिज्ञान कहते हैं । मतिज्ञान जब स्वानुभूति रूप ( अनुभव सहित ) होता है, तब इसके प्रभाव से होने वाला ज्ञान का विकास केवल ज्ञान हो जाता है ।
श्रुतज्ञान :
मतिज्ञान से जाने हुये पदार्थ का जो विशेष रूप से ज्ञान होता है । वह श्रुत ज्ञान है इसके दो भेद हैं- अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक । कर्ण के अतिरिक्त शेष ४ इन्द्रियों के द्वारा होने वाले मति ज्ञान के पश्चात् जो विशेष ज्ञान होता है वह अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान है। जैसे स्वयं घट को जानकर यह जानना कि यह घट अमुक अमुक काम में आ सकता है और कर्ण इन्द्रिय के द्वारा होने वाले मतिज्ञान के पश्चात् जो विशेष ज्ञान होता है वह अक्षरात्मक श्रुत ज्ञान है । जैसे “घट” इस शब्द को सुनकर कर्ण इन्द्रिय के द्वारा जो मतिज्ञान हुआ उसने केवल शब्द मात्र को ही ग्रहण किया, उसके बाद उस “घट” शब्द के वाच्य घड़े को देखकर यह जानना कि यह घट है और यह पानी भरने के काम का है यह अक्षरात्मक श्रुतज्ञान है। यह शब्द-रूप होने से हित अहित का निर्णय करने वाला विकल्प रूप ज्ञान है। यह श्रुतज्ञान ही केवलज्ञान का उपाय है ।
१. वत्थूण जं सहावं जहट्टियं जयपमाण तह सिद्धं ।
तं तह व जाणणे इह सम्मं पाणं जिगाविंति । । - नयचक्र - ३२६
२. संसयविमोहविब्धमविवज्जियं अप्परसरूपस्य । गहणं सम्मं णाणं सायारमणेय भेयं तु । । - द्रव्य संग्रह ४२ ३. मतिश्रुतावधिमन: पर्ययकेवलानि ज्ञानम् । तत्त्वार्थसूत्र १ / ९