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________________ १७४ श्रीमद्वाग्भटविरचितं नेमिनिर्वाणम् : एक अध्ययन चन्द्र वर्णन: नेमि निर्वाण में चन्द्रमा की स्थिति का वर्णन करते हुए कवि कहता है - "जहाँ पर पूर्व दिशा को त्याग कर नवीन अनुराग वाली कान्ता को प्राप्त निर्मल कान्ति वाला चन्द्रमा रात्रि में उँच्चे स्तनों वाली रत्नों की एवमात्र स्थान स्त्रियों का आलिंगन करता है ।” उन्नत शिखरों के समूह रूपी सिंहों से मेरा मृग रात्रि में डर को प्राप्त न हो जाये ऐसा सोचकर ही जहाँ पर चन्द्रमा स्फटिक मणियों के भवनों की किरणों से स्थगित हो जाता था । १ इसी प्रकार नवें सर्ग में चन्द्रोदय वर्णन बड़ा ही मनोहर हुआ है । पर्वत वर्णन: वाग्भट ने पर्वतों के वर्णन में सुमेरु एवं रैवतक पर्वतों का बड़ा अच्छा वर्णन किया है । स्वर्णमयी भूमि वाला रैवतक पर्वत उन्नत शिखरों से गिरते हुये झरनों के ऊपर उछलते हुए जल-बिन्दुओं से देवांगनाओं का शरीर शीतल करता था। एक ओर स्वर्णमयी और दूसरी ओर रजतमयी दीवाल से यह पर्वत अद्भुत शोभा पा रहा था। कवि ने रैवतक का वर्णन सप्तम सर्ग में ५५ पद्यों में किया है - उस पर्वत पर वह गणिनी तपस्विनी विराजमान है, जो मुनि समूह से सेवनीय है, गुरुओं से सहित है और जिसका समस्त लक्षण चरित्राश्रित होकर प्रकाशमान है । देवों द्वारा की गई परिचर्या से जिनकी महिमा अत्यन्त स्पष्ट है, ऐसे हे यदुवंश के अलंकार नेमिनाथ, इस पर्वत पर विद्युद्दाम से शोभायमान और अनेक शिखरों से सहित नवीन मेघों की माला, जलधारा की अविरल वर्षा के द्वारा उस दावानल को प्रणमित कर रही है, जिससे हाथी दूर से डरते हैं जो अत्यन्त सन्ताप रूप शरीर को प्राप्त है I पुष्पों से सम्पन्न इस शिखर पर सिद्ध-वधुएं, देवांगनाएं लता-गृहों में अनेक पुष्पमालाओं को धारण कर तथा शरीर को अनेक धातु खण्डों से सुरम्य बनाकर पतियों द्वारा प्रार्थना किये जाने पर रति क्रिया करती हैं । १. प्राचीं परित्यज्य नवानुरागामुपेयिवानिन्दुरुदारकान्तिः । उच्चैस्तनीं रत्ननिवासभूमिं कान्तां समाश्लिष्यति यत्र नक्तम् उत्करके शरिभ्यो मागाद्भयं नक्तमयं मृगो मे । इतीव यत्र स्फटिकाश्मयालाकरैर्मृगांडः स्थगयांबभूव ।। नेमिनिर्वाण १/४१, ४३ २. मुनिगणसेव्या गुरुणा युक्ता जयति सामुत्र । चरणगतमखिलमेव स्फुरतितरां लक्षणं यस्याः ।। यदूनामुत्तंस त्रिदशपरिचर्योक्तमहिमन्सदैवास्मिन्दावज्वलनमतिदूरत्रसदिभम् । लसद्विद्युद्दामा प्रशमयति संतापितनुगं पयोधारासारैर्नवजलदमाला शिखरिणी ।। इह कुसुमसमृद्धे मालिनीभूय सानौ, विपुलसकलधातुच्छेदनेपथ्यरम्यम् । वपुरपि रचयित्वा कुंजगर्भेषु भूयो विदधति रतिमिष्टैः प्रार्थिताः सिद्धवध्वः ।। - नेमिनिर्वाण, ७ / २, ६, १२
SR No.022661
Book TitleNemi Nirvanam Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAniruddhakumar Sharma
PublisherSanmati Prakashan
Publication Year1998
Total Pages252
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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