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________________ नेमिनिर्वाण में वर्णनवैचित्र्य संगीत सुधा का पान करते हैं । ' नगर वर्णन: १७१ वाग्भट ने नगर की स्थिति का बड़ा ही व्यवस्थित चित्रण किया है । द्वारावती के वर्णन में कवि ने प्राकार, परिखा तथा सुन्दर भवनों का बड़ा ही अच्छा वर्णन किया है । 1 समुद्र की परिखा से युक्त सुन्दर भवनों वाली द्वारावती सुशोभित थी । जहाँ पर चंचल तरंगों रूपी, शुण्ड के प्रहार से जल रूपी हाथियों के द्वारा वप्रक्रीडा को नष्ट करते हुये सिन्धु मानों हँस रहा हो । जिस नगरी में निरन्तर बीधने के अभ्यास में लगे हुये कामदेव ने धनुर्विद्या के कर्म में दक्षता को पाकर मानों संसार के चंचल मनों को लक्ष्य बनाया तथा जो नगरी समुद्र के मध्य कमलिनी के समान शोभायमान होती थी । जिस प्रकार कमलिनी विकसित कमलों की छाया से जिनकी आतप व्यथा शान्त हो गई ऐसे राजहंसों ( हंसविशेष ) से सेवित होती है । उसी प्रकार वह नगरी भी बड़े-बड़े श्रेष्ठ राजाओं से सेवित थी । अर्थात् उसमें अनेक राजा महाराजा निवास करते थे । इस प्रकार की नगरी के प्रतिबिम्ब को देखकर समुद्र में वरुण देव ने भी उसे अपनी राजधानी बनाने के लिये मन में एक चित्र खींचा था । “उन्नत शिखरों वाली द्वारावती के हम्यों पर स्थित सिंहों से यह मेरा मृग भयभीत हो गया है" इस प्रकार विचार कर चन्द्र देव भवनों की स्फटिक शिला की किरणों से स्थिर रह जाता था ।२ प्रकृति चित्रण: सौन्दर्य की अभिव्यञ्जना के लिए प्रकृति का आश्रय ग्रहण करना पड़ता है । मानव को प्रकृति के प्रत्यक्ष बोध में सुख-दुःख की संवेदना प्राप्त होती है अतः कलात्मक भावों की अभिव्यंजना एवं यौन सम्बंधी रागात्मक भावों के रूप-रंग के लिये प्रकृति का आश्रय कवि को ग्रहण करना पड़ता है । कवि वाग्भट ने प्रकृति के अनेक रम्य रूप उपस्थित किये हैं । कवि १. रम्याः सुराष्ट्राभिधया प्रसिद्धा दिवो निवेशा इव सन्ति देशाः । तिलोत्तमा यत्र कृषिः सुकेशी स्त्री मञ्जुघोषा च किल प्रकृत्या ।। गोमण्डलैर्दिङ्मुखविप्रकीर्णैर्नीहारहारप्रतिमैः समन्तात् । देशान्तराणां विभवेन दृप्ता येऽवज्ञया हासमिवोद्वहन्ति ।। वपुर्वनाली हरितोत्तरीयमुल्लासिसत्पत्रलतं वहन्त्याः । यत्रावनेर्विभ्रमदर्पणत्वं सरांसि विभ्रत्यमलोदकानि ।। चक्षुः पराभूतमिवात्तखेदं संभूय संप्राप्तमुपद्रवाय । निरुन्धते गीतगुणेन गोप्यः क्षेत्रेषु यत्रानिशमेणयूथम् ।। यत्रार्जुनीभिस्तुहिनार्जुनाभिरध्यासिताः साद्वलभूमिभागाः । घना नभस्तः पतिताः कथंचित्समं बलाकाभिरिवावभान्ति । । विराजमानामृषभाभिरामैग्रीमैगरीयो गुणसंनिवेशाम् । सरस्वतीसंनिधिभाजमुर्वी ये सर्वतो घोषवतीं वहन्ति ।। - नेमिनिर्वाण, १/२८-३३ २. तत्र प्रसिद्धास्ति विचित्रहर्म्या रम्या पुरी द्वारवतीति नाम्ना । पर्यन्तविस्तारिविशालशालच्छायाछविर्यत्परिखापयोधिः । । विलोलकल्लोलकरप्रहारैर्वार्वारणैर्घातनिपातिदन्तैः । यद्वप्रमुच्छेत्तुमजातशक्तिः फेनैर्विलक्षो हसतीव सिन्धुः ।। राधाव्यधाभ्यासपरेण यस्यामासाद्य तत्कार्मुककर्म दाक्ष्यम् । मनोभुवा विश्वमनांसि मन्ये नोतानि लोलान्यपि लक्ष्यभावम् ॥ परिस्फुरन्मण्डलपुण्डरीकच्छायापनीतातपसंप्रयोगैः । या राजहंसैरुपसेव्यमाना राजीविनीवाम्बुनिधौ रराज ।। एवं विधां तां निजराजधानीं निर्मापयामीति कुतूहलेन । छायाछलादच्छजले पयोधौ प्रचेतसा या लिखितेव रेजे ।। उत्तुंग श्रृंगोत्करकेशरिभ्यो भागाद्भयं नक्तमयं मृगो मे । इतीव यत्र स्फटिकाश्मशालाकरैर्मृगाङ्कः स्थगयांबभूव ।। - नेमिनिर्वाण १/३४-३८ एवं १/४३
SR No.022661
Book TitleNemi Nirvanam Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAniruddhakumar Sharma
PublisherSanmati Prakashan
Publication Year1998
Total Pages252
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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