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________________ अध्याय-तीन (क) नेमिनिर्वाण का संवेद्य एवं शिल्प रस "रस्यते इति रसः” जो आस्वादित होता है वह रस है । रस शब्द का प्रयोग लोक में विभिन्न रूपों में मिलता है, जैसे पदार्थों में अम्ल, तिक्त, कषाय आदि षड्रस तथा आयुर्वेद रस, साहित्य में भक्ति रस आदि । वेदकाल में भी सोमरस तथा मधु के लिए भी रस का प्रयोग किया है । रामायण में रस का प्रयोग जीव रस के लिये हुआ है। साहित्य में शब्द और अर्थ काव्य का शरीर होता है और रस “आत्मा” कहलाती है। अतः काव्य रूपी शरीर में रस रूपी आत्मा एक अनिवार्य तत्त्व है । रस की परिभाषा : रस की स्पष्ट परिभाषा करते हुये मम्मट ने लिखा है : विभावानुभावस्तत् कथ्यन्ते व्यभिचारिणः ।। व्यक्तः स तैर्विभावाद्यैः स्थायिभावो रसः स्मृतः ।। अर्थात् विभाव, अनुभाव और व्यभिचारिभावों से अभिव्यक्त स्थायी भाव ही रस कहलाता है। इसी प्रकार विश्वनाथ ने भी कहा है : विभावानुभावेन व्यक्तः संचारिणा तथा । रसतामेति रत्यादि स्थायिभावः सचेतसाम् ।। अर्थात् आलम्बन विभाव से उबुद्ध व्यभिचारियों से परिपुष्ट तथा अनुभावों से व्यक्त सहृदय का स्थायी भाव ही रस दशा को प्राप्त होता है । यहाँ प्रश्न उठता है कि वह रस जिसमें अभिव्यक्त है । उस रस का भोक्ता कौन है? आचार्य भरत ने - “विभावानुभावव्याभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः” कहा है । निष्पत्ति से क्या अभिप्राय है और किसमें होती है? इसका विवेचन नहीं किया है । परवर्ती आचार्यों ने अपने अपने अनुसार इस सूत्र की व्याख्या की है। इसमें चार आचार्यों की व्याख्यायें उल्लेखनीय हैं : (१) भट्टलोल्लट : इन्होंने निष्पत्ति का अर्थ उत्पत्ति स्वीकार किया है । अतः इनका मत “उत्पत्तिवाद” नाम से जाना जाता है । यह रस मुख्य रूप से रामादि अनुकार्य में तथा गौण रूप से नट में प्रतीत होता है । इनके मत में स्थायी भाव के साथ विभावादि का १. काव्य प्रकाश, ४/२८ २. साहित्य दर्पण, ३/२
SR No.022661
Book TitleNemi Nirvanam Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAniruddhakumar Sharma
PublisherSanmati Prakashan
Publication Year1998
Total Pages252
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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